मंज़िले जानिब निकले तो थे,
पता नही कब रास्ते खो गए,
कभी हुए अंधेरे घनेरे,
कभी हुए तेज़ उजाले,
ऐसे के साये भी खो गए,
रहनुमा तो साथ थे,
पर वही गुमराह कर गए...
ना पश्चिम है न पूरब है,
ना उत्तर है ना दक्षिण है,
यहाँ शहर कैसे ढूँढें?
है तो बस वीरानगी है...
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6 comments:
वाह शमा जी,
खूब कहा आपने.
अपना लिखा एक शेर याद आया,
"तुम अन्धेरे की तरफ़ कुछ इस कदर बढते गए,
रोशनी में देखने का हुनर ही जाता रहा."
और एक और:
"जितने मेरे हमसफ़र थे अपनी मन्ज़िल को गये,
मै था सूनी राह थि और एक सन्नाटा रहा."
दीदी बहुत ही बेहतरीन रचना. आभार.
रहनुमा तो साथ थे,
पर वही गुमराह कर गए...
क्या खूब लिखा है....दिल से लिखतीं हैं आप. इसलिये सीधे दिल तक पहुंचती है हर रचना.
ye viraangi hai
ya deevangi hai
jo bhi hai
mukammal hai !
shama ji , sunder abhivyakti ke liye badhaai.
दिल को छू लेने वाली इस बेहतरीन रचना के लिए बहुत बहुत बधाई!
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