बाबरी मस्जिद तथा राम मंदिर के नतीजे की तारीख आगे और आगे बढ़ती ही जा रही है । काश ! हम इस बात को इतनी तवज्जो ना देते! काश वहाँ कोई अनाथालय बन जाये...बच्चे केवल बच्चे बन के रहें...वो गीत याद आ रहा है," तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा!"
ये रचना तो पुरानी है...ऐसी ही किसी वारदात के समय लिखी थी...फिर एक बार एक हिन्दुस्तानी की हैसियत से ललकारना चाहती हूँ...के हम सब केवल इंसान बनके रहें...कोई जाती का हममे भेद ना हो..
बुतपरस्तीसे हमें गिला,
सजदेसे हमें शिकवा,
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
वोभी तय करनेमे गुज़ारे !
आख़िर किस नतीजेपे पहुँचे?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...
फ़सादोंमे ना हिंदू मरे
ना मुसलमाँ ही मरे,
वो तो इन्सां थे,जो मरे!
उन्हें तो मौतने बचाया
वरना ज़िंदगी, ज़िंदगी है,
क्या हश्र कर रही है
हमारा,हम जो बच गए?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...
देखती हमारीही आँखें,
ख़ुद हमाराही तमाशा,
बनती हैं खुदही तमाशाई
हमारेही सामने ....!
खुलती नही अपनी आँखें,
हैं ये जबकि बंद होनेपे!
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
सिर्फ़ चार दिन मिले..!
Tuesday, September 28, 2010
Monday, September 20, 2010
हर मन की"अनकही"!By 'Ktheleo'
मैं फ़ंस के रह गया हूं!
अपने
जिस्म,
ज़मीर,
ज़ेहन,
और
आत्मा
की जिद्दोजहद में,
जिस्म की ज़रूरतें,
बिना ज़ेहन के इस्तेमाल,
और ज़मीर के कत्ल के,
पूरी होतीं नज़र नहीं आती!
ज़ेहन के इस्तेमाल,
का नतीज़ा,
अक्सर आत्मा पर बोझ
का कारण बनता लगता है!
और ज़मीर है कि,
किसी बाजारू चीज!, की तरह,
हर दम बिकने को तैयार!
पर इस कशमकश ने,
कम से कम
मुझे,
एक तोहफ़ा तो दिया ही है!
एक पूरे मुकम्मल "इंसान"की तलाश का सुख!
मैं जानता हूं,
एक दिन,
खुद को ज़ुरूर ढूंड ही लूगां!
वैसे ही!
जैसे उस दिन,
बाबा मुझे घर ले आये थे,
जब मैं गुम गया था मेले में!
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Saturday, September 11, 2010
कहकशां यानि आकाशगंगा! By 'Ktheleo'
ऐ खुदा,
हर ज़मीं को एक आस्मां देता क्यूं है?
उम्मीद को फ़िर से परवाज़ की ज़ेहमत!
नाउम्मीदी की आखिरी मन्ज़िल है वो।
हर आस्मां को कहकशां देता क्यूं है?
आशियानों के लिये क्या ज़मीं कम है?
आकाशगंगा के पार से ही तो लिखी जाती है,
कभी न बदलने वाली किस्मतें!
दर्द को तू ज़ुबां देता क्यूं है?
कितना आसान है खामोशी से उसे बर्दाश्त करना,
अनकहे किस्सों को बयां देता क्यूं है?
किस्से गम-ओ- रुसवाई का सबब होते है|
क्या ज़रूरत है,
तेरे इस तमाम ताम झाम की?
ज़िन्दगी!
बच्चे की मुस्कान की तरह
बेसबब!!
और
दिलनशीं!
भी तो हो सकती थी!
Monday, September 6, 2010
वो कसक भी नही....
ऐसा नही कि तुम्हें हम से मुहब्बत नही ,
ये भी सच है कि, दिल में तुम्हारे, हमारे लिए,
पहली-सी अहमियत नही,वो कसक भी नही।
हज़ार वादे किये कि मिलेंगे वहीँ कहीँ,
ना मिलने की कोई वजह भी कही नही,
हमने इंतज़ार किया इसकी परवाह नही?
किसी दोराहे पे आप खड़े तो नही?
मोड़ लेना चाहते हो,कहते क्यों नही?
मेरी राह से तुम्हारी रहगुज़र मुमकिन नही?
ये भी सच है कि, दिल में तुम्हारे, हमारे लिए,
पहली-सी अहमियत नही,वो कसक भी नही।
हज़ार वादे किये कि मिलेंगे वहीँ कहीँ,
ना मिलने की कोई वजह भी कही नही,
हमने इंतज़ार किया इसकी परवाह नही?
किसी दोराहे पे आप खड़े तो नही?
मोड़ लेना चाहते हो,कहते क्यों नही?
मेरी राह से तुम्हारी रहगुज़र मुमकिन नही?
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