Friday, May 29, 2009

ज़ख्म न छेड़ें...!

गर्दूं-गाफिल ने कहा…

शमा जी
बहुत दिन बाद इधर आ पाया । आपकी टिप्पणिया अच्छी लगती हैं । आपसे कोई अप्रसन्न हो नही सकता । इतनी सहजता और सरलता बड़ी तपस्या से मिलती है । आपके झूठ वाला संस्मरण रोचक भी है और प्रेरणास्पद भी ,हम भी खूब हँसे आपकी उस स्थिति की कल्पना करके । एक और पुरानी लिखी गजल आपको पढ़ते हुए याद आयी । शायद अच्छी लगे ।




जख्म न छेड़े आँसू हैं बेताब छलकने लगते हैं

सूखे फूल किताबों में ही रख्खे अच्छे लगते हैं



दरिया ऐ गम इन आंखों से किसने बहते देखा है

बड़ी उम्र वाले भी दुःख में मासूम से बच्चे लगते हैं



वक्त नहीं मिलता यारों को जीवन के जंजालों से

वे सच्चे होकर हंसते हैं तो कितने अच्छे लगते हैं



नही चाहिए किसी की दौलत न कोई दे पाया है

प्यार के दो बोल अय गर्दूं कितने मीठे लगते हैं



बिना इबादत इमारतें सब मन्दिर मस्जिद गुरूद्वारे

जिनको नूर ऐ खुदा मिला उनको सब एक ही लगते हैं

Tuesday, May 26, 2009

सूखा पानी..!

ये रचना, "Leo" जी के ख़ातिर पोस्ट कर रही हूँ...
उनकी एक रचना पढने के बाद मुझे मेरे अल्फाज़ याद आ गए..उनकी रचना से कोई तुलना नही क्योंकि, वो अतुल्य हैं...
"leo" सही मायनेमे रचनाकार हैं...और मुझे किसी "छंद" का ज्ञान नही...!

बेलगाम,तूफानी दरिया था,
कश्तीको उसमे बहा दिया,
सँग मँझधार, भँवर मिला !

डरे-से साहिलोंको देखा,
मूँदी आँखें,पतवार फेंका,
के, समंदर बुला रहा था!

उफ़ !क्या गज़ब ढा गया !
थी साज़िश, या तमाशा!
बहता दरिया, सूख गया!

साहिल,ना समंदर मिला,
दूर खडा, बेदर्द किनारा,
देख मुझे, मुस्काता रहा!

आँखोंसे सैलाब माँगा,
हाथ उठाके, की दुआ,
खुदाको मंज़ूर ना हुआ!

सुकूँ मिला,न किनारा,
बस दश्तो सेहरा मिला,
खुदाया! ये क्यों हुआ?

पेहचाना मुझे?

" किसीके लिए हक़ीक़त नही,
तो ना सही!
हूँ मेरे माज़ीकी परछाई,
चलो, वैसाही सही!
जब ज़मानेने मुझे
क़ैद करना चाहा,
मै बन गयी एक साया,
पहचान मुकम्मल मेरी
कोई नही तो ना सही!
किसीके लिए...

रंग मेरे कई,
रूप बदले कई,
किसीकी हूँ सहेली,
तो किसीके लिए पहेली,
मुट्ठी मे बंद करले,
मै वो खुशबू नही,
किसीके लिए...

कभी किरन आफताबकी
तो कभी ठंडक माहताबकी,
हाथमे लिया आरतीका दिया,
कभी खडी पकड़ जयमाला,
संग्राममे बन वीरबाला कूद पडी,
जब, जब ज़रूरत पडी,
किसीके लिए....

बनके पदमिनी कूदी अँगारोंपे
नाम रौशन किए खानदानोके
हर घाव, हर सदमा झेल गयी,
फटे आँचलसे शर्मो-हया ढँक गयी,
किसीके लिए...

जब जिसे ज़रूरत पडी,
मै उनके साथ होली,
सीनेपे खाए खंजर,
सीनेपे खाई गोली,
जब मुझपे कड़की बिजली,
क्या अपने क्या पराये,
हर किसीने पीठ कर ली
हरबार मै अकेली जली!
किसीके लिए.....

ज़रा याद करो सीता,
या महाभारतकी द्रौपदी!
इतिहासोंने सदियों गवाही दी,
मरणोत्तर खूब प्रशंसा की,
जिंदगीके रहते प्रताड़ना मिली ,
संघर्षोंमे हुई नही सुनवाई
किसीके लिए...

अब नही चाहिए प्रशस्ती,
नाही आसमानकी ऊँचाई,
जिस राह्पे हूँ निकली,
वो निरामय हो मेरी,
तमन्ना है बस इतनीही,
गर हो हासिल मुझे,
बस उतनीही ज़िंदगी...
किसीके लिए...

जलाऊँ अपने हाथोंसे ,
एक शमा झिलमिलाती,
झिलमिलाये जिससे सिर्फ़,
एक आँगन, एकही ज़िंदगी,
रुके एक किरन उम्मीद्की,
कुछ देरके लियेही सही,
किसीके लिए...

शाम तो है होनीही,
पर साथ लाये अपने
एक सुबह खिली हुई,
क़दम रखनेको ज़मीं,
थोड़ी-सी मेरे नामकी,
इससे ज़ियादा हसरतें नहीं!
किसीके लिए....

र्हिदय मेरा ममतामयी,
मेरे दमसे रौशन वफ़ा,
साथ थोड़ी बेवफाईभी,
ओढे कई नक़ाब भी
अस्मत के लिए मेरी,
था येभी ज़रूरी,
पहचाना मुझे?नही?
झाँको अपने अंतरमेही!
तुम्हें मिलूँगी वहीँ,
मेरा एक नाम तो नही!
किसीके लिए...."

"शमा", एक नकारी हकीकत!

जो मेरे अंतरमे है,
वो मेरा नही ....
मै जिसके अंतरमे ,
मेरा हुआ नही...
मै उसकी नही!
क्या खेल हैं जिंदगीके,
क्या रंग इस खिलौनेके
ताउम्र रहा ये खेला,
क्या पता,कैसा,
कब अंत होगा इसका?
सवाल पूछ रही
आपसे, देगा जवाब कोई?

अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी!( Part II)

    
बहता रहता हूं, ज़ज़्बातों की रवानी लेकर,
दर्द की धूप से ,बादल में बदल जाउंगा।

बन के आंसू कभी आंखों से, छलक जाता हूं,
शब्द बन कर ,कभी गीतों में निखर जाउंगा।

मुझको पाने के लिये ,दिल में कुछ जगह कर लो, 
मु्ठ्ठी में बांधोगे ,तो हाथों से फ़िसल जाउंगा।  


कहानी अपनी, पानी की ज़ुबानी
बात पूरी नहीं होगी अगर पूरा सच न लिखा जाये इस ख्याल से गज़ल के बाकी शेर भी आप सब की नज़र कर रहा हूं।उम्मीद है इसे भी आप लोगों की तवव्ज़ो मिलेगी।
                                                                                                                                   _ktheleo at "Kavita"
                                                                                                   (also at www.sachmein.blogspot.com) 

Sunday, May 24, 2009

अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी (I) !

आबे दरिया हूं मैं,कभी ठहर नहीं पाउंगा,
मेरी फ़ितरत में है के, लौट नहीं पाउंगा।

जो हैं गहराई में, मिलुगां  उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं पहुंच नहीं पाउंगा।

दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बदद्दूआ बनके  कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।

जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कॆद हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।

मेरी आज़ाद पसन्दी का, लो ये है सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।

मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।


Saturday, May 23, 2009

सफ़र का सच!

इन सब आफ़सानों में,शामिल कुछ ख्याब हमारे होते,
हम अगर टूट ना जाते तो शायद  सितारे होते।

तमाम कोशिशें मनाने की बेकार गयीं,
वो अगर रुठ ना जाते तो हमारे होते।

तूंफ़ां खुद मुसाफ़िर था कश्ती  में मेरी,
मुश्किलें पतवार थीं,वरना हम भी किनारे होतें। 

Friday, May 22, 2009

पीछेसे वार मंज़ूर नही...

अँधेरों इसके पास आना नही,
बुझनेपे होगी,"शमा"बुझी नही,
बुलंद एकबार ज़रूर होगी,
मत आना चपेट में इसकी,
के ये अभी बुझी नही!

दिखे है, जो टिमटिमाती,
कब ज्वाला बनेगी,करेगी,
बेचिराख,इसे ख़ुद ख़बर नही!
उठेगी धधक , बुझते हुएभी,
इसे पीछेसे वार मंज़ूर नही!

कोई इसका फानूस नही,
तेज़ हैं हवाएँ, उठी आँधी,
बताओ,है शमा कोई ऐसी,
जो आँधीयों से लड़ी नही?
ऐसी,जो आजतक बुझी नही?

सैंकडों जली,सैंकडों,बुझी!
बदनाम हुई,गुमनाम नही!
है शामिल क़ाफ़िले रौशनी ,
जिन्हें,सदियों सजाती रही!
एक बुझी,तो सौ जली..!

Thursday, May 21, 2009

दुश्मने जाँ..!

ना पास आयें हैं,
ना दूर जाएँ हैं,
वो दुश्मने जाँ मेरे,
है जाँ निसार जिनपे
ना पास आए हैं
ना दूर जायें हैं!

क्या खूब निभाएँ हैं,
दिनमे रुलाये हैं,
सोयें तो ख्वाब देखें,
वो हर रात जगाएँ हैं!
ना पास आए हैं,
ना दूर जायें हैं.....

ढूँढे जिगर जिसे,
वो यूँ तीर चलाये हैं,
के जिगर चीर जाए,
फिरभी वहीँ समाये,
ना पास आएँ हैं,
ना दूर जायें हैं...

उम्र की बात छोडिये,
लमहेकी बात छेडिये ,
लबोंपे हँसी उनके,
मेरी जान जाए है,
ना पास आए हैं,
ना दूर जाएँ हैं...

ज़ुल्म है, ये ज़ुल्म है,
जिसे कहेँ प्यार है,
क्यों तडपाये हैं?
इस क़दर सताए हैं?
ना पास आए हैं,
ना दूर जाए हैं....

Friday, May 15, 2009

जले या बुझे...

अरे पागल, क्यों पूछता है,
कि, तेरा वजूद क्या है?
कह दूँ,कि जो हाल है,
मेरा, वही तेराभी हश्र है !

के नही हूँ जिस्म मै,
के हूँ एक रूह मै ,
जो उड़ जाए है,
ये काया छोड़ जाए है..!

क्यों पूरबा देखे है?
ये सांझकी बेला है,
जो नज़र आए मुझे?
वो नज़रंदाज़ करे है !

देख,आईना देख ले,
कल जो था, क्या आज है?
रंग रूप बदलेंगे,
रातमे सूरज दिखेंगे?

किस छोरको थामे है?
किस डोरको पकडे है?
जो दिनकर डूबने जाए है,
वो कहीँ और पूरबा चूमे है!!

ना तेरा जिस्म नित्य है,
ना नित्य कोई यौवन है,
छलावों से खुदको छले है?
मृग जलके पीछे दौडे है?

बोए हैं चंद फूलोंके
साथ खार कई तूने,
फूल तो मसले जायेंगे,
खार सूखकेभी चुभेंगे!!

क़ुदरतके नियम निराले,
गर किया है तूने,
वृक्ष कोई धराशायी,
रेगिस्ताँ होंगे नसीब तेरे!!

आगे बढ्नेसे पहले,
देख बार इक,अतीतमे,
गुलिस्ताँ होंगे आगे तेरे,
काटेही कांटे पैरोंताले!!

मूँदके अपनी आँखें,
झाँक तेरे अंतरमे,
अमृत कुंड छलके है,
फिरभी तू प्यासा है !

लबों के जाम पैमाने तेरे,
आँखोंसे किसीकी पीता है,
बाहोंमे किसीको भरता है,
पैरोंमे पड़े है छाले तेरे..!

तेरे पीछे जो खड़े हैं,
वो भूले हुए वादे तेरे,
लगा छोड़ आया उन्हें,
वो हरदम तेरे साथ चले !

बाकी सब छलावें हैं,
बाकी सब भुलावे हैं !
जा, आज़मा ले उन्हें,
जा, तसल्ली कर ले !

कहीँ ऐसा ना हो के,
ना ये मिलें, ना वो रहें!
मंज़िले जानिब अकेला चले,
रातोंके साये घेरे रहें!

जिनको ठुकराया तूने,
कल तुझे ये छलावे छोडें,
जो तू रहा है देते,
वही तो पलटके पाये है...

दुश्मन नही, खैरख्वाह है तेरे,
देते हैं दुआएँ, फिरभी डरते हैं,
ना पड़े मनहूस साये
बेअसर ना हों दुआएँ !
समाप्त।

"तहे दिलसे दुआ करती है इक "शमा"
हर वक़्त रौशन रहे तेरा जहाँ!!
वो बुझे तो बुझे,ऐसे हों नसीब तेरे,
के काफिले रौशनी हो जाए साथ तेरे..."

मै हीरही रहूँगी....

मै सपना नही हूँ,
जिसकिभी हूँ,
मै हीर हूँ,
मै हक़ीक़त हूँ
माज़ीकी हूँ,
या मेरे आजकी,
तू राँझा ना सही,
मै बंदिनी सही,
मै हीर हूँ,हीर हूँ,

ज़मानेने नकारी हुई,
एक हक़ीक़त हूँ...
हीर हूँ, मै हीर हूँ,
तय कर अपनी ,
ज़िंदगी, चाहे जैसेभी,
मेरा इख्तियार नही,
के मै तेरी होकेभी
निगाहोंमे तेरी नही,
तेरी नही, किसीकी नही...
फिरभी हूँ हीरही, हीरही....

राहोंमे मिले हरयाली,
तू चले फूलोंकी,
बिछी कालीनपे,
मै रेगिस्तानकी
बाशिन्दी हूँ,
सदियोंकी प्यासी,
इतेज़ारमे इक बूंदकी,
जो मुझपे बरसती नही,
इक पुरानी-सी सही,
मै हीर हूँ, मै हीर हूँ...
इल्ज़ामे बेवफाई,
मेरा मुक़द्दर सही,
हक़ीक़त बदलेगी नही,
हीर थी,हीर हूँ,
मै हीरही रहूँगी....

तू मेरा रांझा नही,
कोई फ़र्क़ नही,
मै हूँ हीरही,
ना करे इंतज़ार कोई,
क़यामत की बात नही,
चंद रोज़भी नही,
ना सही, गिला नही,
जान गयी हूँ,
तेरी मजबूरी सही,
तू रांझा नही,
बिखर, बिखरकेभी,
मेरा नाम लिखेगी,
वक्त की सियाही,
ना पढ़े कोई,
मै हीरही रहूँगी,
के मै हीर थी,
मै नही बदलूँगी....

Thursday, May 14, 2009

"शमा"को ऐसे जला गए...

गुलोंसे गेसू सजाये थे,
दामनमे ख़ार छुपाये थे,
दामन ऐसा झटक गए,
तार,तार कर गए ,
गुल सब मुरझा गए...

पलकोंमे छुपाये दर्द थे,
होटोंपे हँसीके साये थे,
खोल दी आँखें तपाकसे,
हमें बेनकाब कर गए,
बालोंसे गुल गिर गए.....

अपने गिरेबाँको लिए बैठे थे,
वो हर इकमे झाँकते थे,
बाहर किया अपने ही से
बेहयाका नाम दे गए,
गुल गिरके रो दिए....


वो तो मशहूर ही थे,
हमें सज़ाए शोहरत दे गए,
बेहद मशहूर कर गए,
लुटे तो हम गए,
इल्ज़ाम हमपे धर गए....

दर्द सरेआम हो गए,
चौराहेपे नीलाम हो गए,
आँखें बंद या खुली रखें,
इनायतोंसे आँखें झुका गए,
गेसूमे माटी भर गए...

बाज़ारके साथ हो लिए,
किस्सये-झूट कह गए,
अब किस शेहेरमे जाएँ?
हर चौखटके द्वार बंद हुए,
निशानों- राहेँ मिटा गए...

वो ये ना समझें,
हम अंधेरोंमे हैं,
तेज़ उजाले हो गए,
सायाभी छुप जाए,
"शमाको" ऐसे,जला गए....

Wednesday, May 13, 2009

लाल जोडेमे सिमटी थी....


सुर्ख जोडेमे सिमटी थी,
चितवन झुकी,झुकी,
वो सजीली लजीली,
सजाके बदरी कजरारी,
पलकोंके पीछे छुपी थी...
दुल्हन नवेली थी....

माथेपे झूमर सजाये,
कंगना भरी कलाई,
हथेलियोंपे हिना थी,
जूडेमे गजरे महके हुए,
झुकी,झकी-सी डाली थी...

गम बिछड़ने का बाबुलसे,
लगन पिया मिलनकी,
इन्तेज़ारकी घड़ी थी,
डोली कबकी सजी थी,
हाय री कैसी किस्मत थी...

पिया आए ना बारातही,
उनके घरसे ख़बर आयी,
सुना दुल्हनमे कमी थी,
वो उनके काबिल नही थी,
तोड़ दें, जंजीरें, अपनी,
उनमे हिम्मत नही थी....

सुर्ख जोड़ा उतार आयी,
डोली हटाई गयी,
दिल थामे वो गिर पडी,
अर्थी बिछाई गयी,
वो जीते जी मर गयी....

सफ़ेद कफ़न ओढे,
बाबुलकी बेटी चली,
वो ऐसे बिदा हुई,
हर आँख रो गयी,
हाय री ये कैसी जुदाई?

जिस माटीकी बनी थी,
वो उसीमे चली गयी,
बदनके लिए संदली,
चंदनी चिता सजायी गयी,
फिजाएँ महक गयीं...
जब वो जलाई गयी...










Saturday, May 9, 2009

आज रात है पूनमकी...

अए महताब क्या है इरादे तेरे?
आज तू है पूरे शबाबपे ,
आज हम ना आएँगे,
तुझे देखने, छतपे अपने...
जान गए हैं,इरादे तेरे...

के ये रौशनी तेरी,ये चाँदनी ,
है इनायत किसी आफताबकी,
जान गए के, ये है रौशनी,
परायी, है ये उधारकी,
क्यों डाले डोरे रानीपे रातकी,


क्यो पड़ता है रौशन चेहरा तेरा,
आतेही आफताबके, सफ़ेद-सा?
इतराए है , किसी मुबारकबाद्से?
जा, तू छुप जा,पीछे बदरियोंके...
हमने शमादानी जलाये रखी,

जिस चांदनीमे जली बिरहनें,
कह दे जाके उन्हें तेरे ग़लत इरादे,
सदियों छलता रहा है,तू इन्हें,
जा, माँग माफी, उनसे,
सर झुका दे क़दमोंमे उनके...

विश्वाश कर लेते तुझपे
गर उस चौदवीकी रातमे,
हम अपने प्रीतमसे होते मिले,
छीन लिए वो लम्हें तूने,
एक और मोहलत क्या मिले?

अब नही ख्वाहिश तेरी,
जिनको होगी वो तकें तुझे,
हम खोये हैं उन्हीमे,
जो नही पास हमारे,
हम तो जल चुके है कबके....

उसी ठंडी उधारकी जलनमे,
नही है लगी, ऐसी जो बुझे,
अब सच्चाई जानके
क्यों सताए है,जा पास उन्हींके
जा पास उन्हींके ,जो कायल तेरे...

तूने तो दूरियाँ बढाई, बीछ में,
दो प्यारमे उलझे दिलोंमे,
तोडे ऐसे नाज़ुक रिश्ते,
फ़िर न कभी ना बधेंगे,
तू तो झूटा बड़ा सबसे....

(जिसकी यादमे ये लिखी,
नही जानती, के
ये उनतक कभी,
पोहोंचेगी भी,
या नही, वो पढेंगे भी ,
आस मिटती नही,
लिखती जा रही ,
ये कलाई रुकती नही...
यादमे जिसके ये,
"शमा" ना जल पाती,
ना बुझही पाती)

जब, जब किवाड़ खडके...

जब जब किवाड़ खडके,
लगा,वो आए, वो आए,
हम बदहवास होके,
दौडे गले लगाने
जब,जब किवाड़ खडके....

ये खेल थे हवाओंके,
ये धोके थे किवाडोंके,
कई बार खाके इन्हें,
अंतमे हम रो दिए,
जब,जब किवाड़ खडके...

मूंद्के अपनी पलकें,
भींच के कान अपने,
तकिये गले लगाए,
उन्हींपे आँसू बहाए...
जब,जब किवाड़ खडके...

सुबह पूछा पडोसीने ,
क्या हुआ, कहाँ थे?
कोई रुका था दरपे आपके,
बड़ी देर द्वार खट खटाए?
उफ़ ! ये क्या बदले लिए...

अब क्या तो खुदको कोसें?
वो आके चले गए!
हम इन्तेज़ारमे उनके,
दिल थामे,रातों, रोते रहे...
जब,जब किवाड़ खडके...

सुनते हैं, कि, वो हैं रूठे,
के अब फिर न आएँगे,
हमें पता नही उनके ठिकाने,
कैसे तो ढूँढे, कैसे पुकारें?
जब,जब किवाड़ खडके...

हवाओं ने दिए धोके....
आती हैं आजभी हवाएँ,
उनको गए, ज़माने गुज़रे,
पर अब हम नही सोते....
किवाड़ खोलने दौड़ते...

Friday, May 8, 2009

कहते हैं कि...

कहते हैं कि, वो हमें,
ताउम्र प्यार करेंगे,
हमभी जिद्पे उतर आएँ हैं,
देखेते हैं कैसे याद रखेंगे ?
कहते हैं तो कहते रहें...

उम्र की क्या बात करें हैं,
पलोंकी खैर मनाएँ,
हम ऐसी चीज़ हैं,
पताभी न होगा उन्हें,
वोभी यही कहेँगे...!

पलमे सिवा हिकारत के,
वो दिलमे अपने
कुछभी ना पायेंगे!
क्यों किसीको याद आएँ?
हमभी ज़िदपे अमादा हैं...

क्यों बेवजह उन्हें सताएँ?
जब की तमन्नाएँ बहारें,
उनके वास्ते, क्यों खिजाएँ,
बनके उनके सामने आएँ?
चाहेंगे,वो ललकारें बहारें...

हम बन पत्ते पतझड़ के,
उड़ जायेंगे संग हवाके,
या बिछ जायेंगे, उन्हींके,
पैरोंतले, मसलके जिसे
वो मीलों निकल जायेंगे...

वादा रहा हमारा हमीसे,
वो इसतरह भूलेंगे,
हमें, कि जैसे,फूलोंसे,
उडी हो गंध,सूखे हुए...
वो राहोंसे गुज़र जायेंगे!

लिए थे इम्तेहाँ ज़हेरके,
ज़िन्दगीमे गलतीसे,
आज जानबूझके,
वही गलती दोहरा लेंगे,
वो समझभी ना पायेंगे!

क्यों ये रंग दिखाए?

किस्मत ने क्या रंग दिखाए!
देख, परख हम दंग रह गए!
सुना था बड़े खेल खेलती है,
कब लगाई शर्त उससे,
हम वैसेभी थके हुए थे,
फिर क्यों ये रंग दिखाए?

ज़रूरी तो नही था,
सरेआम हराती हमें,
सरेआम बनाती तमाशा,
बेखब्र मूँदके पलकें,
हम तो हारे बैठे थे,
क्यों ये तमाचे लगाये?

कब कहा उससे,
कब दी चुनौती उसे?
कौनसे सबक थे,
जो हम सीखे नही थे?
इतने तो पागल नही थे,
देखे हुए रंग, फिरसे दिखाए!

उठ, सीख "शमा" कुछ सीख
जो याद रहे अगले जनमतक...!

Thursday, May 7, 2009

चाँद है, चाँदनी भी....

चाँद भी है चाँदनी भी...,
है कायनात बीमार-सी,
कहीँ रौशनी नही....
कहीँ उसका रहगुज़र नहीं...

खिली है रानी रातकी,
महक मेरी साँसोंमे नहीं,
ना जानूँ, किसकी,
रूह है महकी हुई?

क्यों हूँ इतनी अकेली?
के ख़ुद अपने साथ नहीँ?
सारा जहाँ है सामने,
हदे निगाह्तक, कोई मेरा नहीँ....

हदे निगाह्तक,मै किसीकी नही,
बुलाता हैं मुझे कोई,
क्यों, येभी पता नहीँ,
जानती हूँ , वो मेरा नहीँ...

के मै हूँ इतनी अकेली,
के मै हूँ, किसमे खोयी हुई,
जो ना हुआ मेरा कभी,
क्यों उसे भुला सकती नहीँ ?

क्यों अकेली जी सकती नहीँ?
क्यों हैं साँसें उखड़ी हुई?
क्यों जान जाती नहीँ?
क्यों है किसीमे अटकी हुई?

क्यों कोई मेरा नहीँ?
ये क्यों के मै किसीकी नही?
है वो नाराज़ मुझसे,
वजेह तक पता नही....

ये जहाँ रास आता नहीँ,
अकेलापन मुझे भाता नहीँ...

Saturday, May 2, 2009

बेआबरू हुए...

बोहोत बेआबरू हुए,
निकाला उसने दिलसे,
घरभी वही रहा,
दरभी वही रहा,
बंद हुए दरवाज़े
उनके दिलके...
बेआबरू होके निकले...

पूछते हैं पता हमसे,
रहती हो किस शेहेरमे,
घर है तुम्हारा,
किस कूचे, किस गलीमे,
क्या बताएँ उनसे,
के ये ठिकाने नही हमारे?
रहे हैं बेआबरू होके...

जो छत है सिरपे,
कहते हैं,कि ये ,
दरो दीवारें, सबपे,
लिखे हैं नाम उन्ही के,
इक कोनाभी नही हमारा,
हैं, ग़रीब, आश्रित उन्हीके...
बेआबरू होके निकले हैं...

Friday, May 1, 2009

माँ तेरा आँचल....

गर्दूं-गाफिल said... माँ तेरा आँचल कहाँ खो गया
तेरा लाडला अब तनहा हो गया

जीवन की दोपहरी में जलती रही
मेरे जीवन को उजला करती रही
उम्र की साँझ में जब अकेली हुई
थक कर भी मुझ पर निछावर रही
जिसकी गोदी में शीतल होता था मै
मेरी ममता का सागर कहाँ सो गया

नीड़ ममता का छोडा ,,छौना उड़ा
कौर जिसको खिलाये ,,सलोना मुड़ा
फिर भी देवालयों में ..बिसूरती रही
प्रार्थनाएं मेरे सुख की ही करती रही
जो लेकर बलैयां निखर जाता ..था
वो आरत का दीपक कहाँ खो गया

मेरी" नैहर" इस कहानीपे टिप्पणीके रूपमे "गाफिल" जीने ये रचना लिखी...बेहद शुक्रगुजार हूँ...पढ़ते, पढ़ते मेरी आँखें नम हो गयीं...बोहोत ही उमदा अल्फाज़ हैं....गाफील जी आप बेहतरीन लिखते हैं...

मेरी "शमा"..आ तू पास आ...!

ए "शमा "! तू है कहाँ?
ढूँदती हूँ दरबदर,
एक मैही नही,
तलाशमे है सारा जहाँ,
ज़रा सामने तो आ!
क्यों बिछड़ गयी?
क्या खता हुई,
के तू है खफा सी?
के तू है छुपी हुई?
मेरी "शमा" आ तू सामने आ...

सुन शमा, मेरी प्यारी शमा,
मै हूँ यहाँ, मै हूँ वहाँ,
तूही तो वजूद मेरा,
तू नही तो मै कहाँ?
इतने उजाले हो जहाँ?
वहाँ, कैसे हो बसर मेरा?
सुन मेरी, प्यारी शमा,

आ, तू मेरे आगोशमे आ!,
गौर कर, झाँक अन्दर ज़रा,
हूँ तेरीही आँखों में,
हूँ तेरेही पासमे,
पहचान मुझे अपने सायोंमे,
रहूँगी सामने तेरे,
गर मिले परछाई पीछे तेरे,
ज़मीनपे देख नहीं आसमाँ में ,
मेरी शमा,ओ प्यारी शमा,
नही तुझसे जुदा,
है ये सिर्फ़ भरम तेरा!!!

उफ़! ए" शमा", क्यों बुलाये है,
मुझे अंधेरोंमे?
तू निकलके आ बाहर ज़रा,
आ, तूही आ बाहर ज़रा,
तू चली आ जहाँ है उजाला,
तू चली आ, जहाँ है सवेरा...

क्यों बनी पहेली,
तू जो थी मेरी सहेली?
क्यों राज़ बन गयी ?
जो थी राजदां मेरी,
साथ चली थी,
सालों फासले तय किए,
कहाँ हुई ग़लती?
आ मिटा दें गिले शिकवे,
बस तू लगा ले सीनेसे मुझे,
बंद कर लूँ पलके,
आ तू आ, बेखबर आ...



ले तू मुझे गयी,साथ होली,
अंधेरोंमे जगमगाती हुई...
बन फिरसे , रहनुमा मेरी,
आ पास आ "शमा" पास आ,
के हूँ सहमी हुई,
बिन तेरे, कालिखों से डरी हुई..
आ चली आ, मेरे पास आ,
मेरी "शमा", तू कहीँ ना जा...

सुन मेरी प्यारी शमा,
आखरी ये बात मेरी,
मूँद पलके,
लगा ले गलेसे,
तरस गयी हूँ,
एक बन जाएँ
मै बसूँ तुझमे
तू मुझे खुदमे समा ले..
अबके जो मिलेंगे,
फिर कभी ना जुदा होंगे ,
सुन प्यारी शमा,
ये मेरा वादा रहा,
तेरे हर अंधेरे में साथ हूँ तेरे,
पुकार लेना कहके,
अए शमा, चली आ, मेरी शमा...

देख, तू मुझे मिल गयी,
अंधेरों में टिमटिमाते हुए,
मेरी "शमा",
मेरी "शमा!
हाँ मै तेरे साथ ही थी,
जुदाई तो भरम थी....
अब ना जाना तेज़ उजालों में,
जो तुझे भरमा दें,
मेरा वजूद गुमा दें...!
पकडें, थामे हाथ,तेरे मेरे,
शमा, तू मेरी प्यारी शमा..

हाँ !ना साथ छूटेगा,
वादा रहा,मेरी "शमा"...