Tuesday, April 28, 2009

ज्योत बुझही गयी......!

जलती ssss रही, जलतीही रही,
ना उजाला हुआ,
ना अँधेरा गया,
वो जलती रही,
ज्योती जलती रही...

रात रुक-सी गयी,
चांदभी ना खिला,
टिमटिमाये चंद तारें कहीं,
पर रौशनी नही,
वो जलती रहीssssss

ना मंज़िल दिखी,
ना राहेँ मिली,
ना हवासे बुझी,
ना तूफाँ से बुझी,
आह उसने भरीssssss
उसी आह्से वो बुझी....

वो खुदही बुझी,
वो खुदही बुझीssssss
ज्योती बुझही गयीssssss
ज्योती बुझही गयी,
तूफानसे नही, वो खुदही बुझी...

आखरी साँस तक
आखरी आस तक ,
उसने आहें भरी,
उसने आहें भरी ssssss,

जब सवेरा हुआ,
उसने देखा नही,
वो रहीही नही,
वो रहीही नही sssss
वो रहीही नही sssss

इस गीतमे मन्द्र सप्तक से लेके तार सप्तक का प्रयोग किया जा सकता है...बल्कि तभी...एक "haunting" qaulity इस गीतमे आयेगी, ऐसा मुझे महसूस होता है.....मै ना तो composer हूँ, ना संगीत का ज्ञान रखती हूँ...सिर्फ़ गुनगुनाके देखा तो ऐसा महसूस हुआ...

Monday, April 27, 2009

सिला मिल गया....

बेपनाह मुहोब्बतका सिला मिल गया,
जिन पनाहोंमे दिल था,
वही बेदिल,बे पनाह कर गया...
मेरीही जागीरसे, बेदखल कर गया...!
मिल गया, मुझे सिला मिल गया....

दुआओं समेत, सब कुछ ले गया,
हमें पागल करार गया,
दुनियादार था, रस्म निभा गया,
ज़िंदगी देनेवाला ख़ुद मार गया,
मिल गया, मुझे सिला मिल गया...

तुम हो सबसे जुदा, कहनेवाला,
हमें सबसे जुदा कर गया,
मै खतावार हूँ तुम्हारा,
कहनेवाला, खुदको बरी कर गया,
मिल गया मुझे सिला मिल गया...

ता क़यामत इंतज़ार करूँगा,
कहके, चंद पलमे चला गया,
ना मिली हमारी बाहें,तो क्या,
वो औरोंकी बाहोंमे चला गया..
मिल गया ,मुझे सिला मिल गया...

मौत मारती तो बेहतर होता,
हमें मरघट तो मिला होता,
उजडे ख्वाब मेरे, उजड़ी बस्तियाँ,
वो नयी दुनियाँ बसाने चल दिया...
मिल गया, मुझे सिला मिल गया....

कैद्से छुडाने वो आया था,
मेरे परतक काटके निकल गया,
औरभी दीवारें ऊँची कर गया...
वो मेरा प्यार था, या सपना था,
दे गया, मुझे सिला दे गया...

मुश्किलोंमे साथ देनेका वादा ,
सिर्फ़ वादाही रह गया,
आसाँ राहोंकी तलाशमे निकल गया...
ज़िंदगी और पेचीदा कर गया...
दे गया, मुझे सिला दे गया...

Saturday, April 25, 2009

सच्चाई जान लेने दो....

गर्दूं-गाफिल ने कहा…

चाहना हक नहीं उल्फत ,मुहब्बत तो है मिट जाना
बाँटना मुस्कुराहट ही ,फकत चाहत का पैमाना

जमाने के लिए रोता , जमाने लिए हंसता
मजहब जिसका मुहब्बत है जमाने के लिए मरता
उम्मीदें जिसने पालीं हैं ,वही गमगीन होता है
जिसे तुम आजमाओगे, वही टूटेगा पैमाना

खोल लो दिल के दरवाजे ,हवाओं को गुजरने दो
अंदेशे तो सदा होंगे ,उन्हें भी वार करने दो
सच्चाई जान लेने दो , गुरुर ऐ बद गुमानी को,
वो चाहत ख्वाब है याफ़िर दिलेवहशत का अफसाना

गर्दूं -गाफिल जिकी ये रचना ख़ुद उन्होंने पेश की थी, मेरे कविता ब्लॉग पे( टिप्पणीके साथ) ...मुझे ये रचना अप्रतीम लगी...और अपने ब्लॉग पे डाल दी...उनके ब्लॉग पेभी है..मुझे लगा कि , गर पाठक यहाँ भी पढ़ें,तो और ज़्यादा पढी जायेगी...टिप्पणी तो खो जायेगी...

Sunday, April 19, 2009

वो सपना याद आया....

सूरजने जब पूरबाको चूमा,
लजाया मुखडा रक्तिम हुआ....
वही उष:काल कहलाया...
जब सूरजने उसको चूमा....

वही रंग मैंने हथेलियोंपे सजाया,
सुर्ख, खिरामा, वो बना,रंगे हिना !
जब उन्होंने घूँघट का पट खोला,
उन हाथोंने अपना चेहरा छुपाया!

जब माँग चूमी उन्होंने,
भर दिए अनगिनत सितारे,
पूरा हुआ सिंगार मेरा...
जब छुआ चेहरा मेरा....

शर्माते हुए इक किरन खिली,
लाजकी पंखुडी खुल गयी,
भरमाई परिणीता गठरी बनी...
बाहोंका हार गलेमे पाया...!

किस्मतको,उसीपे रश्क हुआ,
वो सपना था,सच कब हुआ?
बरसों बाद ख्वाबोंका लम्हा,
मुझे सताने क्यों लौट आया?

टूटे सपनेने कितना थकाया,
जितना जोड़ा, उतना बिखरा,
दिल उसे क्यों नही भूला?
जिसने मुझे इतना रुलाया?

जो कभी नही सजा,ऐसा,
रंगे हिना क्यों याद आया? ?

Saturday, April 18, 2009

नही जुस्तजू हमें....

जिसे हर रात चाहिए
नयी चाँदनी, आँगन नए,
हर शाम लबोंके जाम नए,
जिस्म नए, हरवक्त नयी बाहें,
इक रातकी बदरीसे डरके,
जो तलाशे उजाले नए,
उम्र गुजार देंगे अमावस में ,
ऐसे चाँदकी नही जुस्तजू हमें...

कृष्ण पक्षके के स्याह अंधेरे
बने रहनुमा हमारे,
कई राज़ डरावने,
आ गए सामने, बन नजारे,
बंद चश्म खोल गए,
सचके साक्षात्कार हो गए,
हम उनके शुक्रगुजार बन गए...

बेहतर हैं यही साये,
जिसमे हम हो अकेले,
ना रहें ग़लत मुगालते,
मेहेरबानी, ये करम
बड़ी शिद्दतसे वही कर गए,
चाहे अनजानेमे किए,
हम आगाह तो हो गए....

जो नही थे माँगे हमने,
दिए खुदही उन्होंने वादे,
वादा फरोशी हुई उन्हीसे,
बर्बादीके जश्न खूब मने,
ज़ोर शोरसे हमारे आंगनमे...
इल्ज़ाम सहे हमीने...
ऐसेही नसीब थे हमारे....

अब न रहे कोई शिकवे,
बेहतर हैं यही साये,
जिनमे हम हो अकेले,
गंध आती है, उस उतरन में,
बसी है जिसमे अजनबी साँसे,
मुबारक हो, वो उजाले,
वो आँगन, वो सितारे,
उन्हें, जो अब नही हमारे...

जब रंगीनिया दामन छोड़ दें,
पास ना हो कोई,
बुला लेना हमें,
खिदमत में हाज़िर होंगे,
आज़माँ लेना कभीभी,
जब कभी पड़ जाओ अकेले....
ये रहे वादे हमारे,
अमादा रहेंगे इनपे,
जीते जी हमारे.....

शमा...जो जली हरदम अकेली....

Tuesday, April 14, 2009

अंधेरों की खैर हो....

'तनहा' उदास रात के लमहों की खैर हो
इक शम्म जल उठी है अंधेरों की खैर हो

बैठे हैं इंतज़ार में लौटेंगे वो कभी
बरसों की बात छोड़िये सदियों की खैर हो

होठों पे एक बात है होती नहीं बयाँ
सोचा है आज कह भी दें लफ़्ज़ों की खैर हो

उनको छुआ कि जिस्म को बिजली ने छू लिया
देखा है उनको बारहा आंखों की खैर हो

मौजों से आज हो गयी तूफाँ की दोस्ती
दरिया है बेलगाम किनारों की खैर हो

-- प्रमोद कुमार कुश 'तनहा'

Mai Pramodjee kee behad shukrguzaar hun, ki ,unhonne ye gazal mujhe apne blogpe copy, paste karnekee ijaazat dee....unkee behtareen rachnaonmese mujhe ye ek lagee thee...sheershak maine apneaap de diya hai...aashaa kartee hun, ki unhen aitaraaz nahee hoga...

Thursday, April 9, 2009

मेरे सफरके हमसफ़र...

हम कभी रूठते न थे,
मनाना आता नही उन्हें,
बखूबी जानते थे !
ताउम्र वो रूठे रहे,
हमारी हर अदासे
हम उन्हें मनाते रहे !
हम फिरभी नही रूठे.....

वो हमसफ़र मेरे, सफ़र के
हर मोड़पे मुँह मोडके,
चलतेही गए, निकलके आगे,
हम दामन पसारते रहे,
चश्म बेसब्र रोते रहे,
मुरझाये लब मुस्कुराते रहे,
हम कभी ना रूठे.....

अपनीही बाहोंमे सिमटे रहे,
कभी एक क़दम भी साथ चले?
पूछती रहीं हरवक्त हमसे,
सिसकती सुनसान राहे,
ना, ना, ना कहो ऐसे,
हम जवाबमे नकारते रहे,
हम रूठे, पर खुदसे...

की ना की हर ख़ता के,
इल्ज़ाम उम्रभर, सहते रहे,
चाहते तो रूठते उनपे,
पर हम तो निसार थे,
उन्हीपे ,जो हमें हमारे,
सबकुछ लगे थे,
कैसे नही समझे,
के, हम उनके क्या थे?
रूठते तोभी क्या पाते...?

कठपुतली बँधी खूँटी से,
जिसे वो नचाते रहे?
सिर्फ़ यही थे उनके लिए?
बेखब्र ख़याल आते रहे,
बेसाख्ता सवाल उठते गए,
बेदर्द मौसम बदलते गए,
हम उन्हें बुलातेही गए,
ख़ुद को ख़ुद ही मनाते रहे....

अब छाई हैं खिजाएँ, ,
मीलों रूखे बियाबाँमे ,
कभी आयीं थी बहारें?
जो देती हो सदायें?
उजडे बूटे, सूखे पत्ते,
बेज़ुबाँ, सब बेचारे,
करते रहे इशारे,
अब क्या तो रूठें,
क्या तो मनाएँ उन्हें??

कौन डगर,ये कैसा सफर?

भयभीत कुम्हलाये मनको क्या पता था?
ये डगर क्या थी, कौनसा रास्ता था?
मै किस मंजिल की ओर चली थी?
ये कौन शहर ,किस दिशा सफ़र चला ?
मेरे पीका घर था, या बंदीशाला?
मेरा इंतज़ार कौन कर रहा था?
आगे सपने थे या इक संसार पीड़ा का?
शर्मीली दुल्हन थी, पलकोंमे डर था,
ना आँसू सकती थी छलका,
खुलके हँसना भी मना था !
सफर आगे, आगे चला था,
मन बचपनके घरमे रुका पड़ा था,
वो नन्हीं, नन्हीं पग डंडियाँ,
मुझे थामने दौड़ते मेरे दादा,
नही भूल पा रही थी,
वो बाबुलकी, सखियाँ, वो गलियाँ,
सफर आगे, आगे चला था,
मन पीछे, पीछे भाग रहा था,
अनजान डर जिसे घेर रहा था...
इक भयभीत मन, भरमा रहा था,
पीका नगर करीब आ रहा था,
पीका नगर बस, आनेवाला था....

राह...जिसकी मंजिल नही....

मै उस राह्पे निकल पड़ी,
मंज़िल जिसकी नही थी कोई..
राहों! तुमसे कोई गिला नही,
बेज़ुबाँ थी तुम, तुम क्या कहती?
वो तो मेरी चाहत धोखा दे गयी,
ज़ुबाँ होती, तो तुम चीन्खतीं
रुको, एक क़दम बढ़ना नही,
तुम पुकार, पुकारके कहतीं !!

पीला-सा माहताब....

"दिखता है जो मुखड़ा
जैसे हो पीला-सा माहताब,
सुनते हैं, कभी रौशन,
होता था इतना,
लोग कहते थे उसे,
के, हाय माहजबीं !,
दिल करता है, तुम्हें
कहके पुकारें ,' ऐ आफताब !' "

वो महकी कली थी....

शबनम धुली थी,मेहकी कली थी,
पंखुडी नाज़ुक, खुलने लगी थी,
मनके द्वारोंपे दस्तक हुई थी,
वो चाहत किसीकी बनी थी!
शबनम धुली थी ....

बिछुड्नेवाली थी उसकी वो डाली,
जिसपे वो जन्मी,पली थी,
उसे कुछ खबरही नही थी,
पीकी दुनिया सजाने चली थी,
शबनम धूलीथी ...

बेसख्ता वो झूमने लगी थी,
पुर ख़तर राहोंसे बेखबर थी
वो राह प्यारी, वो मनकी सहेली,
हाथ छुडाये जा रही थी,
शबनम धुली थी.....

कहता कोई उससे कि पड़ेगी,
सबसे जुदा,वो बेहद अकेली,
तो कली, सुननेवाली नही थी!
पलकोंमे ख्वाबोंकी झालर बुनी थी!
शबनम धुली, वो मेहकी कली थी,
वो सिर्फ़ मेहकी कली थी.....

Wednesday, April 8, 2009

दरख्तोंके साये ....

दरख्तोंके साए ठंडे, ठंडे,
रुको, रुको कहते गए,
राहों पे खडी धूप कड़ी,
राह चलने कहती गयी,
बार, बार बुलाती रही,
हम ज़ालिम धूपमे चल पड़े,
दरख्तों के साए रोकते गए,

सख्त राहोंपे चलके,
पैरोंके छाले दुखते गए
तब कितने याद आए,
वो प्यारके साए,
जो रोकते रहे थे!

वो बाहोंके सिरहाने ,
बेहद याद आए,
वो दर्खतोंके तने,
कितने याद आए!
दूरतक हमें बुलाते रहे!

एक दिन थकके
सोंचा मुड़ जाएँ,
किस लिए चलें आगे!
पूछा राह्गीरोंसे
जो पीछेसे आए,
क्या दरख्त बुलाते हमें?

वो कहने लगे,
चले चलो आगे,
वो दरख्त नही रहे,
कैसे मिलेंगे साए?
पुकारनेवाले नही रहे !

किस्मत होगी तो मिलेंगे
तपते रेगिस्तानोमे तुम्हें,
बहरोंके लुभावन साए,
तनहा, तनहा चलते गए,
कहीं नही मिले वो साए!
दरख्त याद आते रहे!

जिन्हें हम पीछे छोड़ आए,
वो बोहोत याद आए
साए वैसे फिर नही मिले,
गुज़री आंधियोंमे
वो दम तोड़ गए!
दरख्त हमें छोड़ गए...!

कोई नही, कोई नही....

" ओ राह चलते राहगीर,
सुन बात सुन ओ राहगीर,
यहाँ कोई नही, कोई नही,
तेरा रहनुमा यहाँ कोई नही,
कितनी है रहगुज़र यहाँ,
लगता है निकली हैं बारातें यहाँ,
पर तुझे शामिल कर ले ,
कारवाँ ऐसा कोई नही, कोई नहीं,
बिखरे हैं कितने जलवे यहाँ
तेरा हाथ थाम ले ऐसा है यहाँ
है कोई? कोई नही, कोई नही,
दिल डूबने लगा है साथ दिनके,
पर मंज़िल के निशाँ कहीं नही,
हदे नज़रतक कोई नही, कोई नही....."

दर्द नही रुलाता...

आज जब देख रही हूँ,
पीली पुरानी तस्वीरें ,
आ रहे हैं याद मुझे,
कितनेही गुज़रे ज़माने,
भूली नही पल एकभी,
ना ख़ुशी का, ना ग़म काही ,
पर आज हर लम्हये ख़ुशी,
खुनके आँसू रुला रही,
दर्द अब नही रुलाता,
उसकी तो आदत पड़ गयी,
ख़ुशी है जो नायाब बन गयी ....

Saturday, April 4, 2009

भटकी हुई बदरी....

हूँ भटकती हुई एक बदरी,
अपनेही बंद आसमानोंकी,
जिसे बरसनेकी इजाज़त नही....

वैसेतो मुझमे, नीरभी नही,
बिजुरीभी नही,युगोंसे हूँ सूखी,
पीछे छुपा कोई चांदभी नही....

चाहत एक बूँद नूरकी,
आदी हूँ अन्धेरोंकी,फिरभी,
सदियोंसे वो मिली नही....

के मै हूँ भटकी हुई एक बदरी,
अपनेही बंद आसमानोंकी....
मेरे लिए तमन्नाएँ लाज़िम नही....

शमा।

Friday, April 3, 2009

"शमा"को बुझाके....

अभी, अभी, नेहलाये गए हैं,
सफ़ेद कपडेमे लपेटे गए हैं,
लगता है, मारे गए हैं,
हमें पत्थरोंसे मारनेवालें,
हमपे फूल चढा रहे हैं....
जीते जी हमपे हँसनेवाले,
सर रख क़दमोंपे हमारे,
जारोज़ार रोये जा रहे हैं........
इस "शमा"को बुझाके,
एक और शमा जला रहे हैं....
हमारी परछाईसे डरनेवाले,
क्यों हमें लिपट रहे हैं?
बेशक, हम लाशमे,
तबदील किए जा चुके हैं......
ये क्या तमाशा है?
ऐसा क्यों कर रहे हैं??
शमा