Friday, June 25, 2010

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी को उसकी कहानी कहने देते हैं,
चलो हम अपने शिकवे रहने देते है।

सच और झूंठ का फ़र्क तो फ़िर होगा,
दोस्तों को उनकी बात कहने देते है।

बुज़ुर्गों पे चलो इतना अहसान करें 
बुढापे में उन्हे पुराने घर में रहने देते है।

दर्द में भी खुशी तलाश तो ली थी,
ख्याब मुझको कहां खुश रहने देते है?

Wednesday, June 23, 2010

मुझ संग खेलो होली...


कहाँ हो?खो गए हो?
अपने आसमाँ के लिए,
पश्चिमा रंग बिखेरती देखो,
देखो, नदियामे भरे
सारे रंग आसमाँ के,
किनारेपे रुकी हूँ कबसे,
चुनर बेरंग है कबसे,
उन्डेलो भरके गागर मुझपे!
भीगने दो तन भी मन भी
भाग लू आँचल छुडाके,
तो खींचो पीछेसे आके!
होती है रात, होने दो,
आँखें मूँदके मेरी, पूछो,
कौन हूँ ?पहचानो तो !
जानती हूँ , ख़ुद से बातें
कर रही हूँ , इंतज़ार मे,
खेल खेलती हूँ ख़ुद से,
हर परछायी लगे है,
इस तरफ आ रही हो जैसे,
घूमेगी नही राह इस ओरसे,
अब कभी भी तुम्हारी
मानती नही हूँ,जान के भी..
हो गयी हूँ पागल-सी,
कहते सब पडोसी...
चुपके से आओ ना,
मुझ संग खेलो होली ...

Saturday, June 12, 2010

ज़हेरका इम्तेहान.....

बुज़ुर्गोने कहा, ज़हरका,
इम्तेहान मत लीजे,
हम क्या करे गर,
अमृतके नामसे हमें
प्यालेमे ज़हर दीजे !
अब तो सुनतें हैं,
पानीभी बूँदभर चखिए,
गर जियें तो और पीजे !
हैरत ये है,मौत चाही,
ज़हर पीके, नही मिली,
ज़हर में मिलावट मिले
तो बतायें, क्या कीजे?
तो सुना, मरना हैही,
तो बूँदभर अमृत पीजे,
जीना चाहो , ज़हर पीजे!

Thursday, June 10, 2010

"कविता" पर भी! पेड! "बरगद" का! (www.sachmein.blogspot.com)


आपने बरगद देखा है,कभी!

जी हां, ’बरगद’, 

बरर्गर नहीं,

’ब र ग द’ का पेड!

माफ़ करें,
आजकल शहरों में,
पेड ही नहीं होते,
बरगद की बात कौन जाने,

और ये जानना तो और भी मुश्किल है कि,
बरगद की लकडी इमारती नहीं होती,

माने कि, जब तक वो खडा है,
काम का है,

और जिस दिन गिर गया,
पता नही कहां गायब हो जाता है,

मेरे पिता ने बताया था ये सत्य एक दिन!
जब वो ज़िन्दा थे!

अब सोचता हूं, 

मोहल्ले के बाहर वाली टाल वाले से पूछुंगा कभी,
क्या आप ’बरगद’ की लकडी खरीदते हो?


भला क्यों नहीं?


क्या बरगद की लकडी से ईमारती सामान नहीं बनता?


 पता नहीं क्यों!


Thursday, June 3, 2010

मन

कभी मन इतना -सा ,
जैसे खश खश का दाना !

कभी मन इतना बड़ा,
आसमाँ समाके रीता पड़ा!

आँख ना इससे चुराना,
मन हर वक़्त आईना!

मानो तो मन ही रहनुमा,
इसका कहा ना टालना!