Friday, April 23, 2010

मुर्ग मुस्सलम और पानी! "कविता" के पाठकों के लिये भी!


Select a Pot which is wide enough for the birds .
खुली जगह जैसे लान या टेरस आदि में रखें 






















मेरे एक अज़ीज़ दोस्त का SMS आया,
लिखा था,

"भीषण गर्मी है,
भटकती चिडियों के लिये,
आप रखें,

खुली जगह,और बालकनी में,
पानी!"

"ईश्वर खुश होगा,
और करेगा,
आप पर मेहरबानी!"

मैं थोडा संजीदा हुया,
और लगा सोचने,

मौला! ये तेरी कैसी कारस्तानी?
ये मेरा जिगर से प्यारा दोस्त,
मुझसे क्यूं कर रहा है,छेडखानी!

पूरे का पूरा मुर्ग खा जाता है,
वो भी सादा नहीं,सिर्फ़ ’मुर्ग मसाला-ए-अफ़गानी’

तो क्या कहूं इसे,
इंसान की नादानी?
या दस्तूर-ए-दुनिया-ए-फ़ानी! 

कैसा दिल है इंसान का?
मुर्ग को ’मसाल दानी’!
और भटकते परिंदो को "पानी"!
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PS: Immediately after the writing the thought I  kept the Pots as seen in the post. You all may like to do the same, because jokes apart we will help the poor birds by doing so:

वैसे भी :
एक ने कही, दूजे ने मानी,
गुरू का कहना दोनो ज्ञानी| 

Friday, April 16, 2010

स्याह अंधेरे..


कृष्ण पक्षके के स्याह अंधेरे
बने रहनुमा हमारे,
कई राज़ डरावने,
आ गए सामने, बन नज़ारे,
बंद चश्म खोल गए,
सचके साक्षात्कार हो गए,
हम उनके शुक्रगुजार बन गए...

बेहतर हैं यही साये,
जिसमे हम हो अकेले,
ना रहें ग़लत मुगालते,
मेहेरबानी, ये करम
बड़ी शिद्दतसे वही कर गए,
चाहे अनजानेमे किए,
हम आगाह तो हो गए....

जो नही थे माँगे हमने,
दिए खुदही उन्होंने वादे,
वादा फरोशी हुई उन्हीसे,
बर्बादीके जश्न खूब मने,
ज़ोर शोरसे हमारे आंगनमे...
इल्ज़ाम सहे हमीने...
ऐसेही नसीब थे हमारे....

Monday, April 12, 2010

क़हत..

हर क़हत में हम सैलाब ले आये,
आँसूं सूख गए, क़हत बरक़रार रहे..

कहनेको तो धरती निर्जला है,
ज़रा दिलकी सरज़मीं देखो, कैसी है?

दर्द के हजारों बीज बोये हुए हैं,
पौधे पनप रहे हैं,फसल माशाल्लाह है!

Friday, April 9, 2010

वफ़ा की नुमाइश!


कैसे किसी की वफ़ा का दावा करे कोई,
शोएब है कोई तो, है आयशा कोई|

जिस्मों की नुमाइश है यहां,रिश्तों की हाट में ,
खुल के क्यों  न जज़बातो, का सौदा करे कोई!

खुद परस्ती इस कदर के अखलाक ही गुम है
कैसे भी हो इन्सान को सीधा करे कोई| 


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एक और नाज़ुक ख्याल देखें,नीचे दिये लिंक पर: 
शायद इसी लिये!
http://sachmein.blogspot.com/2010/04/blog-post_10.html

Thursday, April 8, 2010

कडवी कडवी !!! "Kavita" par bhi!

लहू अब अश्क में बहने लगा है,
नफ़रतें ख़्वाब  में आने लगीं हैं,

मरुस्थल से जिसे  घर में जगह दी
नागफ़नी फ़ूलों को खाने लगीं हैं, 

हमारी फ़ितरत का ही असर है,
चांदनी भी तन को जलाने लगी है

चलो अब चांद तारो को भी बिगाडें  
रितुयें धरती से मूंह चुराने लगीं है.

बात कडवी है तो कडवी ही लगेगी,
सच्ची बातें किसको सुहानी लगीं है. 

रुसवाईयाँ..!

अब रुसवाईयों से क्या डरें ?
जब तन्हाईयाँ सरे आम हो गयीं ?
खता तो नही की थी एकभी ,
पर सजाएँ सरे आम मिल गयीं !
काम बनही गया,जो रुसवा कर गए,
ता-उम्र तन्हाई की सज़ा दे गए..!

Saturday, April 3, 2010

खिलने वाली थी...

खिलनेवाली थी, नाज़ुक सी
डालीपे नन्हीसी कली...!
सोंचा डालीने,ये कल होगी
अधखिली,परसों फूल बनेगी..!
जब इसपे शबनम गिरेगी,
किरण मे सुनहरी सुबह की
ये कितनी प्यारी लगेगी!
नज़र लगी चमन के माली की,
सुबह से पहले चुन ली गयी..
खोके कोमल कलीको अपनी
सूख गयी वो हरी डाली....

( bhroon hatya ko maddenazar rakhte hue ye rachna likhee thee..)