बाबरी मस्जिद तथा राम मंदिर के नतीजे की तारीख आगे और आगे बढ़ती ही जा रही है । काश ! हम इस बात को इतनी तवज्जो ना देते! काश वहाँ कोई अनाथालय बन जाये...बच्चे केवल बच्चे बन के रहें...वो गीत याद आ रहा है," तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा!"
ये रचना तो पुरानी है...ऐसी ही किसी वारदात के समय लिखी थी...फिर एक बार एक हिन्दुस्तानी की हैसियत से ललकारना चाहती हूँ...के हम सब केवल इंसान बनके रहें...कोई जाती का हममे भेद ना हो..
बुतपरस्तीसे हमें गिला,
सजदेसे हमें शिकवा,
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
वोभी तय करनेमे गुज़ारे !
आख़िर किस नतीजेपे पहुँचे?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...
फ़सादोंमे ना हिंदू मरे
ना मुसलमाँ ही मरे,
वो तो इन्सां थे,जो मरे!
उन्हें तो मौतने बचाया
वरना ज़िंदगी, ज़िंदगी है,
क्या हश्र कर रही है
हमारा,हम जो बच गए?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...
देखती हमारीही आँखें,
ख़ुद हमाराही तमाशा,
बनती हैं खुदही तमाशाई
हमारेही सामने ....!
खुलती नही अपनी आँखें,
हैं ये जबकि बंद होनेपे!
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
सिर्फ़ चार दिन मिले..!
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10 comments:
इस तरह की बातें हमें अच्छी नहीं लगती । वहाँ अनाथालय बना दें तो किसी एक का हक तो मरेगा ही । जिसका हक बनता है उसको मिलना ही चाहिए ।
हाँ किसका हक है यह बताना मुश्किल अवश्य है ।
Kavita ji....baat beshak aapki sahi hai...Main bhi kuchh isi khayaal ka hoon.. magar jabse hindi blog jagat se juda hoon..sochna band kar diya hai...yahan bahut se aise hamare bhai bandhu hain jinhe ye baat pasand nahi aati...
Kaash koi isi baat pe baat kar le..
Koi school..koi anathalya..koi hospital bana diya jaaye...
आपके जज़्बे को सलाम!
कभी कभी "सच में" पर भी आया करिये!
ज़िन्दगी के चार दिन जिन हालात में खर्च हुए, उन पर दुःख व्यक्त करती आपकी कविता सचमुच एक सार्थक कविता है
इसकी रचना के लिए बधाई !
और प्रकाशन के लिए धन्यवाद !
www.albelakhatri.com पर पंजीकरण चालू है,
आपको अनुरोध सहित सादर आमन्त्रण है
-अलबेला खत्री
बहुत सही और सच्चे ख़याल हैं ....बहुत अच्छी लगी यह रचना ..
अम्न की राह में सार्थक कदम.
बधाई.
sahii kah rahi ho kash ye baat har hindustani samjh sake.
फ़सादोंमे ना हिंदू मरे
ना मुसलमाँ ही मरे,
वो तो इन्सां थे,जो मरे....
बहुत सच कहा है आपने ... पता नही क्यों जो धर्म हमें शांति सिखाता है उसी के नाम पर हम खून ख़राबा करने को तैयार हो जाते हैं .... बहुत ही लाजवाब लिखा है आपने ...
bahot achchi lagi.
बहुत.. बहुत.. बहुत ही सुन्दर कविता..
उन्हें तो मौतने बचाया
वरना ज़िंदगी, ज़िंदगी है,
क्या हश्र कर रही है
हमारा,हम जो बच गए?
ज़िंदगीके चार दिन मिले.
सच्चाई भी है.. संवेदनशीलता भी..
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