Tuesday, August 11, 2009

मंज़िले जानिब...

मंज़िले जानिब निकले तो थे,
पता नही कब रास्ते खो गए,
कभी हुए अंधेरे घनेरे,
कभी हुए तेज़ उजाले,
ऐसे के साये भी खो गए,
रहनुमा तो साथ थे,
पर वही गुमराह कर गए...
ना पश्चिम है न पूरब है,
ना उत्तर है ना दक्षिण है,
यहाँ शहर कैसे ढूँढें?
है तो बस वीरानगी है...

6 comments:

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

वाह शमा जी,
खूब कहा आपने.
अपना लिखा एक शेर याद आया,

"तुम अन्धेरे की तरफ़ कुछ इस कदर बढते गए,
रोशनी में देखने का हुनर ही जाता रहा."

और एक और:

"जितने मेरे हमसफ़र थे अपनी मन्ज़िल को गये,
मै था सूनी राह थि और एक सन्नाटा रहा."

Chandan Kumar Jha said...

दीदी बहुत ही बेहतरीन रचना. आभार.

वन्दना अवस्थी दुबे said...

रहनुमा तो साथ थे,
पर वही गुमराह कर गए...
क्या खूब लिखा है....दिल से लिखतीं हैं आप. इसलिये सीधे दिल तक पहुंचती है हर रचना.

Unknown said...

ye viraangi hai
ya deevangi hai
jo bhi hai
mukammal hai !

Yogesh Verma Swapn said...

shama ji , sunder abhivyakti ke liye badhaai.

Urmi said...

दिल को छू लेने वाली इस बेहतरीन रचना के लिए बहुत बहुत बधाई!