खोयीसी बिरहन जब
उस ऊँचे टीलेपे
सूने महल के नीचे
या फिर खंडहर के पीछे
गीत मिलन के गाती है,
पत्थर दिल रूह भी
फूट फूट के रोती है।
हर वफ़ा शर्माती है,
जब गीत वफ़ाके सुनती है....
खेतोमे,खालिहानोमे,
अंधेरोंमे याकि,
चाँदनी रातों में ,
सूखे तालाब के परे,
या नदियाकी मौजोंपे
कभी जंगल पहाडोंमे.....
मीलों फैले रेगिस्तानोमे
या सागरकी लहरोंपे
जब उसकी आवाज़
लहराती है,
हर लेहेर थम जाती है,
बिजलियाँ बदरीमे
छुप जाती हैं.....
हर तरफ खामोशी ही
खामोशी सुनायी देती है।
मेरी दादी कहती है
सुनी थी ये आवाज़ें,
उनकीभी दादीने...
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9 comments:
बिरहन तो दिल को छू गई शमाजी सुन्दर रचना
wah, birhan ji, sorry shamaji, ha ha,
bahut sunder rachna, koi purani film jaise bees saal baad yaad aa gai.
सुन्दर रचना के लिये बधाई.
शमा जी,
बहुत खूबसूरत अंदाज है, कविता बिरहन के बहाने अपने अंतर समाने लगाती है और ऐसी ही कई आवाजें गूंजने लगती है जो मेरे पहले भी सुनी गई हैं और आज भी सुनी जा रही हैं।
एक बड़ा मौजूं शे’र याद आया है शायद मुक्क्मिल ना भी हो :-
जाने क्या कह दिया इन डूबने वालों ने लहरों से
ये आज भी सिर मारती.. फिरती हैं साहिल पर
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
हर तरफ खामोशी ही
खामोशी सुनायी देती है।
मेरी दादी कहती है
सुनी थी ये आवाज़ें,
उनकीभी दादीने...
बहुत सुनर रचना. हमेशा की तरह.
बहुत ख़ूब
---
तख़लीक़-ए-नज़र
विरह वेदना के मनोभावो का सुन्दर चित्रण.
aapko bahot din baad padha ..nice sundar abhivyakti
SOCHA THAAA IS DUNIA MEIN HUMI HEE NAHI RAHO MEIN AUR BHI HAI
"BAHUT KHOOB JANAB
RAJ SAGAR
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