Thursday, August 13, 2009

कहाँ हो?

कहाँ हो?खो गए हो?
पश्चिमा अपने आसमाके
लिए रंग बिखेरती देखो,
देखो, नदियामे भरे
सारे रंग आसमाँ के,
किनारेपे रुकी हूँ कबसे,
चुनर बेरंग है कबसे,
उन्डेलो भरके गागर मुझपे!
भीगने दो तन भी मन भी
भाग लू आँचल छुडाके,
तो खींचो पीछेसे आके!
होती है रात, होने दो,
आँखें मूँदके मेरी, पूछो,
कौन हूँ ?पहचानो तो !
जानती हूँ , ख़ुद से बातें
कर रही हूँ , इंतज़ार मे,
खेल खेलती हूँ ख़ुद से,
हर परछायी लगे है,
इस तरफ आ रही हो जैसे,
घूमेगी नही राह इस ओरसे,
अब कभी भी तुम्हारी
मानती नही हूँ,जान के भी..
हो गयी हूँ पागल-सी,
कहते सब पडोसी,
पर किसके लिए हूँ,
दुनियाँ हरगिज़ नही जानती..

6 comments:

Yogesh Verma Swapn said...

virah vedna ki sunder abhivyakti. sunder rachna.

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

आँखें मूँदके मेरी, पूछो,
कौन हूँ ?पहचानो तो !
जानती हूँ , ख़ुद से बातें
कर रही हूँ , इंतज़ार मे,

दर्द जब हद से बढ जाता है तो या तो हंसी बन के फ़ूटता है,या दिवानगी भरी उम्मीद की शक्ल इख्तियार कर लेता है। पर दर्द को न तो हंसी में उडाया जा सकता है,न इसे दिवानगी कहा जा सकता है, इसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है,शायद बांटा भी नही जा सकता!

सुन्दर अभिव्यक्ति.

सूर्य गोयल said...

क्या खूब लिखा है आपने. बहुत अच्छा लगा. बधाई. आपकी और मेरी लेखनी में फर्क मात्र इतना है की आप शब्दों को कविताओ में पिरोती है और मैं शब्दों से गुफ्तगू करता हूँ. आपका भी मेरे ब्लॉग पर स्वागत है. www.gooftgu.blogspot.com

Unknown said...

kuchh na kaho......................
kuchh bhi na kaho...........
_____
_____
_____marmsparshi......hridaysparshi umda kavita...
______________badhaai !

Neeraj Kumar said...

हो गयी हूँ पागल-सी,कहते सब पडोसी,
पर किसके लिए हूँ,दुनियाँ हरगिज़ नही जानती..

शमा मैम,
वाह-वाह ...
और क्या कहूँ...

sandhyagupta said...

BAhut khub likha hai.Shubkamnayen.