रिश्तोंमे पड़ीं, दरारें इतनी,
के, मर्रम्मत के क़ाबिल नही रही,
छूने गयी जहाँ भी, दीवारें गिर गयीं...
क्या खोया, क्या मिट गया,या दब गया,
इस ढेर के नीचे,कोई नामोनिशान नहीं....
कुछ थाभी या नही, येभी पता नही...
मायूस खडी देखती हूँ, मलबा उठाना चाहती हूँ,
पर क्या करुँ? बेहद थक गयी हूँ !
लगता है, मानो मै ख़ुद दब गयी हूँ...
अरे तमाशबीनों ! कोई तो आगे बढो !
कुछ तो मेरी मदद करो, ज़रा हाथ बटाओ,
यहाँ मै, और कुछ नही, सफ़ाई चाहती हूँ...!!
फिर कोई बना ले अपना, महेल या झोंपडा,
उसके आशियाँ की ये हालत ना हो,
जी भर के दुआएँ देना चाहती हूँ...!!
सारी पुकारें मेरी हवामे उड़ गयीं...
कुछेक ने कहा, ये है तेरा किया कराया,
खुद्ही समेट इसे, हमें क्यों बुलाया ?
पुरानी रचना है..दोबारा पोस्ट कर रही हूँ..
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10 comments:
कुछेक ने कहा, ये है तेरा किया कराया,
खुद्ही समेट इसे, हमें क्यों बुलाया ?
जी हाँ खुद ही समेटना होगा. कोई नही है जो ---
भा गई यह रचना
बहुत सुन्दर रचना पुनः प्रस्तुति पर भी बधाई.
सुन्दर रचना.....
antarmukhi kar diya is kavita ne...........
bhaavuk kar diya
dravit kar diya
____insaani hayaat ke tamaam jazbaat
kabhi kabhi haalat ke aage ghutne tek dete hain
lekin har raat ki koi subah zaroor hoti hai..
raat jitni lambi aur gahri hogi, subah utni hi shaffaq aur ujli hogi..
____acchhi kavita mubaaraq ho !
प्रभावशाली अभिव्यक्ति
---
राम सेतु – मानव निर्मित या प्राकृतिक?
बहुत सुन्दर रचना..
आपकी रचना में जाने क्यूँ दर्द भरा होता है और पता नहीं किसके/किनके प्रति यह करवाहट भरी होती है...
जो भी हो, रचनाये मन को छू जाती हैं...
bahut gahre bhav.
old is gold now diamond.
वाह क्या बात है! बहुत खूब!
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