सर आँखों पे चढाया जिन्हें हमने,
वो हमें निगाहों से गिरा गए,
सीता होनेका दावा न किया हमने,
वो ख़ुद को राम कह गए।
हम तो पहुँचे थे आँगन उनके,
प्यारभरी बदरी बनके,
तन मन सींचना चाहते थे,
बरसे तो,वो रेगिस्ताँ बन गए!
मंज़ूर थीं सारी सज़ाएँ ,
ख़ुद शामिले कारवाँ हो गए,
हमें एक उम्र तन्हाँ दे गए...
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11 comments:
kya hai ye ?
kavita hai ki aah ka dariya hai...............
shabd hain ki hizra ka tarjumaa hai...............
bhasha hai ki aag ka gubbaar hai.........
hay
hay
hay
yon laga maano kisi ne patti khol kar
zakhm dikhaa diye hon.........
shamaaji, aapne toh aaj udaas kar diya
is sanjeeda rachnaa k liye aapko
dili mubaaraqbaad !
bada pyaara sa ulahna,
sunder rachna.
sundar!
yahee zindagi ki katu sachchaaie hai ! aur aapne ise bakhoobi qalambadhh kiya hai.
badhaai!!
महफ़िल थी, शायरी थी, अशार थे फकत नज्में,
बैठे आप थे खामोश, धीरे से दास्ताँ कह गए...
बडे शौक से सुन रहा था ज़माना,
तुम्हीं सो गये दास्तां कहते-कहते.
ख़ुद शामिले कारवाँ हो गए,
हमें एक उम्र तन्हाँ दे गए...
अच्छा लिख रही हो।
बधाई।
सर आँखों पे चढाया जिन्हें हमने,
वो हमें निगाहों से गिरा गए,
baat to waaqai mein sahi hai.....
shama ji
waaaaaaaaaaaaaaah
kya kahne , sorry main bahut dino baad blog me aaya hoon , aapki ye nazxm padhi aur dil ko badi tasaalli hui ji .
badhai
सर आँखों पे चढाया जिन्हें हमने,
वो हमें निगाहों से गिरा गए,
सीता होनेका दावा न किया हमने,
वो ख़ुद को राम कह गए।
bahut badhiya kavita.
सीता होनेका दावा न किया हमने,
वो ख़ुद को राम कह गए।
today this type of self-worshiping and self-apreciation is being a DHAKOSALA...
बहुत ही भावपूर्ण रचना. आभार.
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