Friday, June 19, 2009

मुकम्मल जहाँ ...

मैंने कब मुकम्मल जहाँ माँगा?
जानती हूँ नही मिलता!
मेरी जुस्तजू ना मुमकिन नहीं !
अरे, पैर रखनेको ज़मीं चाही
पूरी दुनिया तो नही माँगी?

मिली थी रौशनी,
नन्हें से जुगनूकी,
वो भी छीन ली
दिल भी जला लेती,
आँधियाँ वोभी बुझा गयीं...!

नाम की बस 'शम्म 'रह गयी,
अंधेरे दूर करनेकी चाहत थी,
तेरे नूर के रहते भी,
खुदाया! पूरी न हो सकी...


6 comments:

Neeraj Kumar said...

Dear ma'am
Your kavita is always thought-provoking but painfull.....

Vinay said...

बहुत बढ़िया है

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चर्चा । Discuss INDIA

दिगम्बर नासवा said...

मिली थी रौशनी,
नन्हें से जुगनूकी,
वो भी छीन ली
दिल भी जला लेती,
आँधियाँ वोभी बुझा गयीं...

मुकम्मल जहां सो किसी को मिलता भी नहीं............ पर आपने बहूत ही खूब उतरा है दिल के जज्बातों को ......... अच्छा लिखा है

"अर्श" said...

दिल भी जला लेती,
आँधियाँ वोभी बुझा गयीं...!


ye bahot hi gambhir baat kahi hai aapne... behad umdaa baat ... bahot hi gahare shoch ko parilachhit karte hai... dhero badhaayee


arsh

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

What a great thought,a what great presentation.
Aap ne cath up kar hi liya apne khud ke high standards ke saath!
Keep up the good job, and keep amusing us with your great poetic sense and creations.

M VERMA said...

नाम की बस 'शम्म 'रह गयी,
अंधेरे दूर करनेकी चाहत थी,
bahut khoob andhera door karne kee chaahat ko naman.
khoobsurat rachana