Monday, June 8, 2009

जब, जब किवाड़ खडके...

जब जब किवाड़ खडके,
लगा,वो आए, वो आए,
हम बदहवास होके,
दौडे गले लगाने
जब,जब किवाड़ खडके....

ये खेल थे हवाओंके,
ये धोके थे किवाडोंके,
कई बार खाके इन्हें,
अंतमे हम रो दिए,
जब,जब किवाड़ खडके...

मूंद्के अपनी पलकें,
भींच के कान अपने,
तकिये गले लगाए,
उन्हींपे आँसू बहाए...
जब,जब किवाड़ खडके...

सुबह पूछा पडोसीने ,
क्या हुआ, कहाँ थे?
कोई रुका था दरपे आपके,
बड़ी देर द्वार खट खटाए?
उफ़ ! ये क्या बदले लिए...

अब क्या तो खुदको कोसें?
वो आके चले गए!
हम इन्तेज़ारमे उनके,
दिल थामे,रातों, रोते रहे...
जब,जब किवाड़ खडके...

सुनते हैं, कि, वो हैं रूठे,
के अब फिर न आएँगे,
हमें पता नही उनके ठिकाने,
कैसे तो ढूँढे, कैसे पुकारें?
जब,जब किवाड़ खडके...

हवाओं ने दिए धोके....
आती हैं आजभी जो,
उनको गए, ज़माने हुए,
पर अब हम नही सोते....
हर आहट पे दौड़ते हैं !

एक और पुरानीही पोस्ट !

2 comments:

Yogesh Verma Swapn said...

khubsurat rachna ke liye badhai.

!!अक्षय-मन!! said...

इंतज़ार की बेसब्री को पहली बार ऐसे शब्दों में उतारते देखा है.....बहुत ही मार्मिक दर्शन एक उत्कृष्ट रचना.......