अरसा हुआ, अपना "वर्क प्रोफाइल",किसी नेट वर्क पे डाला था...इतनी ग़लत फेहमियों का अम्बार सहा ,कि, वहाँ जानाही छोड़ दिया......किसी ने बाद में पूछा," क्यों वहाँ पे आना छोड़ दिया दिया?"
उसके जवाब में ये रचना लिखी थी...!
आज ब्लॉग पे भी कई बार इन्हीं ग़लत फेहमियों का शिकार होते हुए ख़ुद को तथा अन्य bloggers को देख रही हूँ...
देखते हैं शब्दों की जंग
'connexexion'पे होती हुई,
हर रोज़, हर दम,
कभी इसका हिस्सा
बनते हैं, तो कभी,
गवाह बनते है हम!
सुना था तीर छूटे ,
ज़बान की कमान से,
ज़ख्म देता है गहरे,
ज़ियादा, मैदाने जंग से!
लेखनी तेज़ होती है,
धारकी तलवार से,
सच है, मनाते हैं,
ख़ैर मनही मनमे!
गर यहाँ हाथों में
होती असली तलवारें,
तीर छूटते कमान से,
हम नया इतिहास रचाते!
हल्दी घाटी या महाभारत,
छुप जाते किताबों में !
यातो,अपना खून बहाते,
या,हाथ खूनसे रंग लेते!
क्या दिखाई हरी ने,
लाशें रण भूमी में,
हम अपना ही "बॉक्स"
सूर्ख़ खिरामा देखते!
बेकफ़न पडी लाश
अपनी ही आँखों से
क्या खूब देखते
अर्थ का अनर्थ देखते !
जितनाभी बच लें ,
हाथ कँगन को आरसी कैसी?
रोज़, आँखों से देखते हैं!
हाथों में गर ख़ंजर होते,
टिप्पणी क्या चीज़ है,
हम ख़ुद ही 'डिलीट' होते!
'कम्युनिकेशन' से अधिक,
'मिस कम्युनिकेशन'होते हुए,
रोज़ वैसेही देखते हैं,
बंदूकें नहीं हाथों में,
वरना, अबतक बेक़ब्र पड़े होते!
( अन्यथा ना लें...३/४ साल पुरानी रचना है...महसूस किया कि, जो दुनियामे होता है, वही ,चाहे असली दुनियाँ हो या, 'नेट'की दुनियाँ, एकही प्रतिबिम्ब हर जगह होता है..!)
Monday, June 15, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
6 comments:
umda rachna !
sunder abhivyakti.
aapki kavitayen tatha aapke baare mein pada. dard chhupa hai aur abhivyakt bhi ho raha hai. mujhe bas itna hi kahna hai ki apne sapno ki shama jalaaye rakhiye. maan leejiye ki raasta andhera hai aur hamare paas sirf ek dhundli si laltain ho to bhi thodi raah to dikhegi hi, bas thodi thodi door tak chalte rahiye aur nai nai raahen khulti rahengi.
dr. jagmohan rai
jagmohanrai.blogspot.com
रोज़ वैसेही देखते हैं,
बंदूकें नहीं हाथों में,
वरना, अबतक बेक़ब्र पड़े होते!
रोज़ वैसेही देखते हैं,
बंदूकें नहीं हाथों में,
वरना, अबतक बेक़ब्र पड़े होते!
bahout umdha
wah kya aaina dikhayaa hai!
baht khoob !!!
Post a Comment