Sunday, June 21, 2009

दरख़्त ऊँचे थे...

तपती गरमीमे देखे थे,
अमलतास गुलमोहर
साथ खडे,पूरी बहारपे!
देखा कमाल कुदरत का,
घरकी छयामे खडे होके!
तपती गरमी मे देखे...

हम तो मुरझा गए थे
हल्की-सी किरण से!
बुलंद-ए हौसला कर के
खडे हुए धूप मे जाके!
तपती गरमी देखे...

दरख़्त खुदा के करिश्मे!
हम थे ज़मीं के ज़र्रे !
कैसे बराबरी हो उनसे ?
वो हमसे कितने ऊँचे थे!
तपती गरमी मे देखे...


आसमाँ छूती बाहों के,
साए शीतल, घनेरे,
कैसे भूँले,जिनके तले,
हम महफूज़ रह, पले थे!
तपती गरमी मे देखे थे...

2 comments:

mark rai said...

बाहर कोई संगीत बज रहा है , ऐसा लगा ।
गीत चल रहा था ...
''एक बंगला बने न्यारा ......''
के एल सहगल साहब की आवाज में । रात के करीब ग्यारह बजे । यह गीत मेरे शरीर में सिहरन पैदा कर देता है ।
सारे जीवन का फल्स्फां इसी में दिखता है ।
मुझे शुरू से ही पुराने गानों की हवा नसीब हुई है । उन हवाओं में जो आनंद है ...वह नए गाने के झोकों में कहाँ ।
अतीत के भूले बिसरे गीत मुझे अपनी पुरानी तहजीब याद दिलाते है । सोचते सोचते आंखों में नमी छा जाती है ।

aapne kaaphi achchhi kavita likhi....its like a real thinking...

Unknown said...

bahut khoob !
umda rachna !
man me gahre utarkar asar dikhaane wali kavita
waah waah !