शामिले ज़िन्दगीके चरागों ने
पेशे खिदमत अँधेरा किया,
किया तो क्या हुआ?
मैंने खुदको जला लिया!
रौशने राहोंके ख़ातिर ,
शाम ढलते बनके शमा!
मुझे तो उजाला न मिला,
ना मिला तो क्या हुआ?
सुना, चंद राह्गीरोंको
हौसला ज़रूर मिला....
अब सेहर होनेको है ,
ये शमा बुझनेको है,
जो रातमे जलते हैं,
वो कब सेहर देखते हैं?
शमा
ये एक पुरानी पोस्ट है, जिसे दोबारा पोस्ट कर रही हूँ.....
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 comments:
जो रातमे जलते हैं,
वो कब सेहर देखते हैं?
बहुत सही लिखा है शमाजी ।
वाह! सुन्दर रचना है,
मेरा कहना तो यही के,
"है अन्धेरा भी घना और हवायें भी सर्द,
शमा चाहे के नही उसे हर हाल में जलना होगा।"
क्या कहूँ सिवा इसके कि नज़्म ख़ुद इक शमअ है
wah shama ji, shama ka kya khubsurat prayog kiya hai. wah.
Post a Comment