Deepak Sharma said... मेरी सांसों में यही दहशत समाई रहती है
मज़हब से कौमें बँटी तो वतन का क्या होगा।
यूँ ही खिंचती रही दीवार ग़र दरम्यान दिल के
तो सोचो हश्र क्या कल घर के आँगन का होगा।
जिस जगह की बुनियाद बशर की लाश पर ठहरे
वो कुछ भी हो लेकिन ख़ुदा का घर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर कौ़में बनाने वालों सुन लो तुम
काम कोई दूसरा इससे ज़हाँ में बदतर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर दंगे, सियासत के हुक्म पे फितन
यूँ ही चलते रहे तो सोचो, ज़रा अमन का क्या होगा।
अहले-वतन शोलों के हाथों दामन न अपना दो
दामन रेशमी है "दीपक" फिर दामन का क्या होगा।
दीपकजी ने मेरे ब्लॉग पे टिप्पणीके रूपमे ये रचना लिखी थी...मुझे बेहद पसंद आयी...टिप्पणी में तो ये छुपी रह जाती...ब्लॉग पे शायद औरभी पाठक पढ़ सकें....
रचना निहायत सुंदर है, इसमे कोई दोराय नही हो सकती.....
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1 comment:
deepak sharma ji ko badhai pahunchayen.sunderrachna ke liye.
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