Thursday, December 10, 2009

मंज़िले जानिब......


जानिबे मंज़िल निकले तो थे,
पता नही कब रास्ते खो गए,
कभी हुए अंधेरे घनेरे,
कभी हुए तेज़ उजाले,
ऐसे के साये भी खो गए,
रहनुमा तो साथ थे,
पर वही गुमराह कर गए...
ना पश्चिम है न पूरब है,
ना उत्तर है ना दक्षिण है,
यहाँ शहर कैसे ढूँढें?
है तो बस वीरानगी है.

12 comments:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

रहनुमा तो साथ थे,
पर वही गुमराह कर गए...
बहुत बडा सच है ये दी...अक्सर ऐसा ही होता है.

Yogesh Verma Swapn said...

sahi hai.

मनोज कुमार said...

दिलचस्प विवरण.

Udan Tashtari said...

यहाँ शहर कैसे ढूँढें?
है तो बस वीरानगी है.

--वाह! बहुत गहरी बात की है आपने.

Dev said...

वाह
अत्यंत उत्तम लेख है
काफी गहरे भाव छुपे है आपके लेख में
.........देवेन्द्र खरे

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छा। प्रेरक। बधाई स्वीकारें।

वाणी गीत said...

रहनुमा गुमराह कर गये ...मार्मिक रचना ...!!

vandana gupta said...

यहाँ शहर कैसे ढूँढें?
है तो बस वीरानगी है.
bahut hi gahri baat kah di........badhayi.

रश्मि प्रभा... said...

bahut hi badhiyaa

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

Vaah!Kamaal!

दिगम्बर नासवा said...

ना पश्चिम है न पूरब है,
ना उत्तर है ना दक्षिण है,
यहाँ शहर कैसे ढूँढें?
है तो बस वीरानगी है ...

बहुत ही अच्छा लिखा है ......... सच है की जब मन में अंधेरा छाता है तो किसी भी दिशा में कुछ नज़र नही आता ......

कविता रावत said...

यहाँ शहर कैसे ढूँढें?
है तो बस वीरानगी है.
Aksar jindagi mein aise mod aa hi jate hain...
Sundar rachna
Badhai