Monday, December 21, 2009

कहाँ हो?

कहाँ हो?खो गए हो?
पश्चिमा अपने आसमाके
लिए रंग बिखेरती देखो,
देखो, नदियामे भरे
सारे रंग आसमाँ के,
किनारेपे रुकी हूँ कबसे,
चुनर बेरंग है कबसे,
उन्डेलो भरके गागर मुझपे!
भीगने दो तन भी मन भी
भाग लू आँचल छुडाके,
तो खींचो पीछेसे आके!
होती है रात, होने दो,
आँखें मूँदके मेरी, पूछो,
कौन हूँ ?पहचानो तो !
जानती हूँ , ख़ुद से बातें
कर रही हूँ , इंतज़ार मे,
खेल खेलती हूँ ख़ुद से,
हर परछायी लगे है,
इस तरफ आ रही हो जैसे,
घूमेगी नही राह इस ओरसे,
अब कभी भी तुम्हारी
मानती नही हूँ,जान के भी..
हो गयी हूँ पागल-सी,
कहते सब पडोसी...

9 comments:

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

बहुत भावुक कर गयी ये कविता.
देखो, नदिया मे भरे....सारे रंग आसमाँ के,
किनारे पे रुकी हूँ कबसे......
........
भाग लूं आँचल छुडाके,
तो खींचो पीछे से आके!
होती है रात, होने दो,
आँखें मूँदके मेरी, पूछो,
कौन हूँ ?पहचानो तो !
जानती हूँ , ख़ुद से बातें
कर रही हूँ , इंतज़ार मे...

बस इतना ही कहना उचित होगा...
कि.. ये एक भावपूर्ण, साहित्यिक रचना है...
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा भाव हैं रचना के-बहुत सुन्दर.

मनोज कुमार said...

काफी संतुष्टि प्रदान कर गई यह कविता।

वाणी गीत said...

बहुत भावुक कर दिया है आपकी कविता ने ..!!

vandana gupta said...

bahut hi bhavbhini rachna.

vandana gupta said...

फिर, पीकर वही पानी
क्यूँ बदल जाते तुम ?
क्यूँ बदल जाता मैं ?

behtreen bhav........shandar abhivyakti.

Yogesh Verma Swapn said...

sunder rachna , badhaai.

वन्दना अवस्थी दुबे said...

कुछ कहने की गुंजाइश ही कहां छोडी आपने?

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

सुन्दर भावपूर्ण रचना!