कहाँ हो?खो गए हो?
पश्चिमा अपने आसमाके
लिए रंग बिखेरती देखो,
देखो, नदियामे भरे
सारे रंग आसमाँ के,
किनारेपे रुकी हूँ कबसे,
चुनर बेरंग है कबसे,
उन्डेलो भरके गागर मुझपे!
भीगने दो तन भी मन भी
भाग लू आँचल छुडाके,
तो खींचो पीछेसे आके!
होती है रात, होने दो,
आँखें मूँदके मेरी, पूछो,
कौन हूँ ?पहचानो तो !
जानती हूँ , ख़ुद से बातें
कर रही हूँ , इंतज़ार मे,
खेल खेलती हूँ ख़ुद से,
हर परछायी लगे है,
इस तरफ आ रही हो जैसे,
घूमेगी नही राह इस ओरसे,
अब कभी भी तुम्हारी
मानती नही हूँ,जान के भी..
हो गयी हूँ पागल-सी,
कहते सब पडोसी...
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9 comments:
बहुत भावुक कर गयी ये कविता.
देखो, नदिया मे भरे....सारे रंग आसमाँ के,
किनारे पे रुकी हूँ कबसे......
........
भाग लूं आँचल छुडाके,
तो खींचो पीछे से आके!
होती है रात, होने दो,
आँखें मूँदके मेरी, पूछो,
कौन हूँ ?पहचानो तो !
जानती हूँ , ख़ुद से बातें
कर रही हूँ , इंतज़ार मे...
बस इतना ही कहना उचित होगा...
कि.. ये एक भावपूर्ण, साहित्यिक रचना है...
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
बहुत उम्दा भाव हैं रचना के-बहुत सुन्दर.
काफी संतुष्टि प्रदान कर गई यह कविता।
बहुत भावुक कर दिया है आपकी कविता ने ..!!
bahut hi bhavbhini rachna.
फिर, पीकर वही पानी
क्यूँ बदल जाते तुम ?
क्यूँ बदल जाता मैं ?
behtreen bhav........shandar abhivyakti.
sunder rachna , badhaai.
कुछ कहने की गुंजाइश ही कहां छोडी आपने?
सुन्दर भावपूर्ण रचना!
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