मेरी फ़ितरत में है के, लौट नहीं पाउंगा।
जो हैं गहराई में, मिलुगां उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं पहुंच नहीं पाउंगा।
दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बदद्दूआ बनके कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।
जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कॆद हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।
मेरी आज़ाद पसन्दी का, लो ये है सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।
मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।
5 comments:
शमा जी बहुत ही ख़ूबसूरत अंदाज़
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चाँद, बादल और शाम
मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।
bahut khoob shama ji, ye sher bahut pasand aaya, yun to saare sher bahut badhia hain. dheron badhai sweekaren.
ek ek pankti bahut achhee hai...doosra aur teesra sher sabse behtaren...haan kuchh typing mistakes hai,unpe gaur kariyegaa
www.pyasasajal.blogspot.com
मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।
........बेहद मासूम अभिव्यक्तियाँ. कम शब्दों में ज्यादा कहने की अदा....शुभकामनायें !!
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एक गाँव के लोगों ने दहेज़ न लेने-देने का उठाया संकल्प....आप भी पढिये "शब्द-शिखर" पर.
आप सब का तहे-दिल से शुक्रिया,
शमा जी का शुक्रिया मुझे अपने Blogg पर बुलाने के लिये।
आप जैसे पारखी पाठकों के स्नेह से मेरी हौसलाअफ़्ज़ाई तो हूई ही है,साथ ही लिखते रहने की वजह भी हो गयी।
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