जब जब किवाड़ खडके,
लगा,वो आए, वो आए,
हम बदहवास होके,
दौडे गले लगाने
जब,जब किवाड़ खडके....
ये खेल थे हवाओंके,
ये धोके थे किवाडोंके,
कई बार खाके इन्हें,
अंतमे हम रो दिए,
जब,जब किवाड़ खडके...
मूंद्के अपनी पलकें,
भींच के कान अपने,
तकिये गले लगाए,
उन्हींपे आँसू बहाए...
जब,जब किवाड़ खडके...
सुबह पूछा पडोसीने ,
क्या हुआ, कहाँ थे?
कोई रुका था दरपे आपके,
बड़ी देर द्वार खट खटाए?
उफ़ ! ये क्या बदले लिए...
अब क्या तो खुदको कोसें?
वो आके चले गए!
हम इन्तेज़ारमे उनके,
दिल थामे,रातों, रोते रहे...
जब,जब किवाड़ खडके...
सुनते हैं, कि, वो हैं रूठे,
के अब फिर न आएँगे,
हमें पता नही उनके ठिकाने,
कैसे तो ढूँढे, कैसे पुकारें?
जब,जब किवाड़ खडके...
हवाओं ने दिए धोके....
आती हैं आजभी हवाएँ,
उनको गए, ज़माने गुज़रे,
पर अब हम नही सोते....
किवाड़ खोलने दौड़ते...
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4 comments:
dekho kivad khadke, dekho wo aaye, swapn men.
bahut badhia rachna.
सुनते हैं, कि, वो हैं रूठे,
के अब फिर न आएँगे,
हमें पता नही उनके ठिकाने,
कैसे तो ढूँढे, कैसे पुकारें?
जब,जब किवाड़ खडके...
शमां जी बेहतरीन कविता बहुत ही अच्छी लगी
kitne to haanth hain khadkate teree dehree ko
koyee aaye naa aaye koyee fark tujhe kyon padtaa ?
shama ji , this is your one of best poems .. maine aapki , bahut saari rachnaaye padhi hai .... lekin iski to baat hi kuch aur hai .. har para men ,ek dhadkan hai .. aur shabd ko jaise pran mile ho.. poori kavita shaandar ban padhi hai ..
apko bahut badhai..
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