हर बार लुट ने से पहेले सोंचा
अब लुट ने के लिए क्या है बचा?
कहीँ से खज़ाने निकलते गए !
मैं लुटाती रही ,लुटेरे लूट ते गए!
हैरान हूँ ,ये सब कैसे कब हुआ?
कहाँ थे मेरे होश जब ये हुआ?
अब कोई सुनवायी नही,
गरीबन !तेरे पास था क्या,
जो कहती है लूटा गया,
कहके ज़माना चल दिया !
मैं ठगी-सी रह गयी,
लुटेरा आगे निकल गया...
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12 comments:
waah.....bahut khoob
haay haay haay .........
kalejaa nikal kar rakh diya aapne......
marmsparshi kavitaaon me aap ka koushal kamaal ka hai
bahut hi gahri kavita
abhinandan !
बहुत वेदना है आपकी रचना में ........... दर्द रिस रहा है ........
wah,
koi lut gaya , koi loot gaya. dard se labrez rachna.
रचना जीवन की अभिव्यक्ति है।
शमा साहिबा,
मैं लुटाती रही ,लुटेरे लूट ते गए!
हैरान हूँ ,ये सब कैसे कब हुआ?
.......
मैं ठगी-सी रह गयी,
लुटेरा आगे निकल गया...
गहन चिन्तन की यादगार पेशकश
बहुत खूब, मुबारकबाद
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
ह्म्म्म....क्या लेकर आये थे ...क्या लेकर जायेंगे ....!!
ह्म्म्म....क्या लेकर आये थे ...क्या लेकर जायेंगे ....!!
बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.
बहुत ही अच्छा रचना
बहुत-२ आभार
कम शब्दों में काफी कुछ समेटे हुए एक मार्मिक और बेहतरीन रचना
एक दर्द है जो पहचान में नहीं आता लेकिन साये की तरह लगा हुआ है। आपकी रचना पढ़कर जैसे वह कंधें पर आ बैठा।
ब्हुत अच्छी बात।
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