किसीके लिए हक़ीक़त नही,
तो ना सही!
हूँ मेरे माज़ीकी परछाई,
चलो, वैसाही सही!
जब ज़मानेने मुझे
क़ैद करना चाहा,
मै बन गयी एक साया,
पहचान मुकम्मल मेरी
कोई नही तो ना सही!
किसीके लिए...
रंग मेरे कई,
रूप बदले कई,
किसीकी हूँ सहेली,
तो किसीके लिए पहेली,
मुट्ठी मे बंद करले,
मै वो खुशबू नही,
किसीके लिए...
ज़रा याद करो सीता,
या महाभारतकी द्रौपदी!
इतिहासोंने सदियों गवाही दी,
मरणोत्तर खूब प्रशंसा की,
जिंदगीके रहते प्रताड़ना मिली ,
संघर्षोंमे हुई नही सुनवाई
किसीके लिए...
अब नही चाहिए प्रशस्ती,
नाही आसमानकी ऊँचाई,
जिस राह्पे हूँ निकली,
वो निरामय हो मेरी,
तमन्ना है बस इतनीही,
गर हो हासिल मुझे,
बस उतनीही ज़िंदगी...
किसीके लिए...
जलाऊँ अपने हाथोंसे ,
एक शमा झिलमिलाती,
झिलमिलाये जिससे सिर्फ़,
एक आँगन, एकही ज़िंदगी,
रुके एक किरन उम्मीद्की,
कुछ देरके लियेही सही,
किसीके लिए...
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
13 comments:
इस कविता को पढ़कर एक भावनात्मक राहत मिलती है।
Bahut Khoob.. is website me bhatakta bhatakta aap tak pahucha .. rachna dekhi to thithak kar ruk gaya. Is behtareen rachna ke liye badhai
ज़रा याद करो सीता,
या महाभारतकी द्रौपदी!
इतिहासोंने सदियों गवाही दी,
मरणोत्तर खूब प्रशंसा की,
जिंदगीके रहते प्रताड़ना मिली ,
संघर्षोंमे हुई नही सुनवाई
किसीके लिए...
सच है मित्र , इस सुन्दर रचना के लिए बधाई
मुकम्मल जहाँ मिले ना मिले ,
कोई पहचाने ना पहचाने,
अपने अन्दर हमारी एक सुदृढ़, निश्चित पहचान होती है,
और वह सीता,यशोधरा,झाँसी की रानी, यशोदा.महादेवी........
सबकुछ है..........
bahut hi sundar prastutikaran
जलाऊँ अपने हाथोंसे ,
एक शमा झिलमिलाती,
झिलमिलाये जिससे सिर्फ़,
एक आँगन, एकही ज़िंदगी,
रुके एक किरन उम्मीद्की,
कुछ देरके लियेही सही,
किसीके लिए...
...aisa hi sahi hoga...
bahut hee sundar bhawabhiwyakti ......khyal bilkul sahi lage mujhe.........badhaayi
जिंदगीके रहते प्रताड़ना मिली ,
संघर्षोंमे हुई नही सुनवाई
किसीके लिए...
ये sangharsh ही तो unka नाम ooncha कर gaya .......... tabhi तो आज भी लोग उनको नमन करते हैं ...... बहुत सुन्दर रचना है आपकी ..........
जलाऊँ अपने हाथोंसे ,
एक शमा झिलमिलाती,
झिलमिलाये जिससे सिर्फ़,
एक आँगन, एकही ज़िंदगी,
रुके एक किरन उम्मीद्की,
कुछ देरके लियेही सही,
किसीके लिए...
bahut sahi.
jhilmilaye jis se sirf,
ek aangan ,ek hee zindzgee,
ruke ek kiran ummeed kee ,
kuchh der ke liye hee sahee ,
kisee ke liye .......
khoob !
क्षमा करें सिर्फ ‘एक शमा ,एक घर ,एक आंगन...’
और उस घर के बच्चे ? जिन्हें पढ़ना है , खेलना है ।
बूढ़ी मां ? जिसे बटन टांकना, चांवल चुनना है।
दादा जी ? जिन्हें रामायण बांचना है,।
भाई ? जिसे लिखापढ़ी करनी है...
उम्मीद है उनके लिए अगली बार कुछ और शम्माएं जलेंगी...
जब एक आँगन कहा तो उसमे सभी समाविष्ट हो गए ...ये तो इच्छा है ,की , और कुछ नही तो कमसे एक ज़िंदगी में रौशनी हो ...इससे ज़्यादा इस शमा की शायद औक़ात नही...
" लबपे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी ,
ज़िंदगी शम्म की सूरत हो खुदाया मेरी ...दूर दुनियाका मेरे दमसे अँधेरा हो जाय "...केवल एक दुआ है ...दुनियाका अँधेरा न सही किसी एक दिलका तो हो , एक ज़िंदगी में उजियारा हो...कमसे कम अँधेरा तो न हो....उसी में सफलता मान ले 'ये' शमा ..
Wah, dilo dimaag pe chha gayi ye kavita aapki...
Jai Hind...
Post a Comment