हर बार लुट ने से पहेले सोंचा
अब लुट ने के लिए क्या है बचा?
कहीँ से खज़ाने निकलते गए !
मैं लुटाती रही ,लुटेरे लूट ते गए!
हैरान हूँ ,ये सब कैसे कब हुआ?
कहाँ थे मेरे होश जब ये हुआ?
अब कोई सुनवायी नही,
गरीबन !तेरे पास था क्या,
जो कहती है लूटा गया,
कहके ज़माना चल दिया !
मैं ठगी-सी रह गयी,
लुटेरा आगे निकल गया...
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5 comments:
गरीबन !तेरे पास था क्या,
जो कहती है लूटा गया,
कहके ज़माना चल दिया !
मैं ठगी-सी रह गयी,
लुटेरा आगे निकल गया...
bahut sundar.
शमा जी!
वाह क्या कहना!कमाल का ख्याल और अन्दाज़े बयां.
मैं सिर्फ़ ये कह सकता हूं के:
"ये फ़कीरी भी लाख नियामत है,सम्भंल वरना,
इसे भी लूट के ले जायेंगें ज़माने वाले."
I will be in Mumbai on 30th July,was wondering if could pay my complements in person!Not sure.
बहुत खूब. शायद मुझे कमेन्ट देना न आता हो मगर मैं आपकी हर एक रचना मुक़म्मल रचना कह सकता हूँ
--
जारी रहें.
अब कोई सुनवायी नही,
गरीबन !तेरे पास था क्या,
जो कहती है लूटा गया,
कहके ज़माना चल दिया !
मैं ठगी-सी रह गयी,
लुटेरा आगे निकल गया...
वाह ।
गरीबन !तेरे पास था क्या,
जो कहती है लूटा गया,
कहके ज़माना चल दिया !
मैं ठगी-सी रह गयी,
लुटेरा आगे निकल गया...
बहुत कुछ कह गयीं आप बस चार पंक्तियों में...कहाँ से लाती हैं इतनी पीडादायक सच्चाईयां...
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