बोहोत सच बोल गयी,
बड़ी ना समझी की,
बस अब और नही,
अब झूठ बोलूँगी,
समझ आए वही,
सोचती हूँ ऐसाही!!
कट्घरेमे खडा किया,
सवालोंके घेरेमे, मेरे अपनों,
तुमने ईमान कर दिया !
तुम्हें क्या मिल गया ??
इल्तिजा है, रेहेम करो,
मेरी तफतीश करना,
खुदाके लिए, बंद करो!
भरे चौराहेपे मुझे,
शर्मसार तो ना करो!!
शर्मसार तो ना करो!
आज सरेआम गुनाह
सारे, कुबूल करती हूँ,
की या जो नही की
खुदको ख़तावार कहती हूँ,
हर ख़ता पे अपनीही,
मुहर लगा रही हूँ!!
इक़बालिया बयाँ देती हूँ,
सुनो, अये गवाहों, सुनो,
ख़ूब गौरसे सुनो !
जब बुलावा आए,
भरी अदालातमे, तुम्हें,
तुम बिना पलक झपके,
गवाही देना, ख़िलाफ़ मेरे!
गवाही देना, ख़िलाफ़ मेरे!
बाइज्ज़त बरी होनेवालों!
ज़िन्दगीका जश्न मनाओ,
तुम्हारे दामनमे हो,
ढेर सारी ख़ुशी वो,
जिसकी तुम्हें तमन्ना हो,
तुम्हारी हर तमन्ना पूरी हो,
तहे दिलसे दुआ देती हूँ,
जबतक साँस मे साँस है,
मेरी आखरी साँस तक,
मेरी दुआ क़ुबूल हो,
सिर्फ़ यही दुआ देती हूँ...!!
सिर्फ़ यही दुआ दे सकती हूँ!!
शमा
3 comments:
कुछ बयां सा करती, सुन्दर रचना...
आप की रचना के भाव और मेरे Blogg पर आपकी टिप्पणी से लगता है कि आप एक भावनात्मक उठा पटक के दौर से गुज़र रहीं है.ऐसे समय में शांत भाव से दूसरे व्यक्ति की परिस्थितियों का आंकलन बिना judgmental हुये करना उचित होता है.
और जहां तक "सच" की बात है, इस जीवन में कोई भी सच अपने आप में पूर्ण और अन्तिम नहीं होता.सिवाय ईश्वर और उसकी सत्ता के,सारे के सारे सच हमारे perceptions के प्रतिबिम्ब मात्र हैं.हमारा अपना मन ही उन्हें सच या झूठं मान कर हमें या तो दिलासा देता रह्ता है,या बहकाता रहता है.
परिवर्तन जीवन का सच है,"सच" का परिवर्तित होते रहना भी सच है.
आदर और शुभकामनाओं सहित!
भावुक रचना
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