शबनम धुली थी,मेहकी कली थी,
पंखुडी नाज़ुक, खुलने लगी थी,
मनके द्वारोंपे दस्तक हुई थी,
वो चाहत किसीकी बनी थी!
शबनम धुली थी ....
बिछुड्नेवाली थी उसकी वो डाली,
जिसपे वो जन्मी,पली थी,
उसे कुछ खबरही नही थी,
पीकी दुनिया सजाने चली थी,
शबनम धुली थी.. ...
बेसख्ता वो झूमने लगी थी,
पुर ख़तर राहोंसे बेखबर थी
वो राह प्यारी, वो मनकी सहेली,
हाथ छुडाये जा रही थी,
शबनम धुली थी.....
कहता कोई उससे कि पड़ेगी,
सबसे जुदा,वो बेहद अकेली,
तो कली, सुननेवाली नही थी!
पलकोंमे ख्वाबोंकी झालर बुनी थी!
शबनम धुली, वो मेहकी कली थी,
वो सिर्फ़ मेहकी कली थी.....
"एक बार फिर दुविधा..",इस मालिका में इसे लिख चुकी हूँ...एक कड़ी की शुरुआत इस रचनासे की थी...
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