Thursday, July 9, 2009

वो राह,वो सहेली...

पीछे छूट चली,
वो राह वो सहेली,
गुफ्तगू, वो ठिठोली,
पीछे छूट चली...

ना जाने कब मिली,
रात इक लम्बी अंधेरी,
रिश्तों की भीड़ उमड़ी,
पीछे छूट चली...

धुआँ पहेन चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
होके बेहद अकेली,
पीछे छूट चली...

ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...

9 comments:

ओम आर्य said...

गजब का भाव लिये हुये है रचना ...............

धुआँ पहेन चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
होके बेहद अकेली,
पीछे छूट चली...
इन पंक्तियो मे सिर्फ दर्द का एहसास है ..........जिन्दगी बस यू ही चली गयी ..............क्या बात है !
अतिसुन्दर

बधाई

M VERMA said...

धुआँ पहेन चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
अच्छी अभिव्यक्ति सुन्दर भाव

Prem said...

akelepan ka dard kitni sundarta se abhivyakt hua hai shubh kamnayen --prem

Unknown said...

umda......bahut umda !

डॉ आशुतोष शुक्ल Dr Ashutosh Shukla said...

Vastav men karvan men bhi log akele bhi hote hain...bahut sunder hai..

Vinay said...

बेहतरीन
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विज्ञान । HASH OUT SCIENCE

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बहुत सुन्दर रचना. बहुत अलग सा लिखतीं हैं आप. दिल को छू लेने वाला.....और हां मेरा आग्रह मान लेने के लिये धन्यवाद. अब मैं नियमित अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकूंगी.

स्वप्न मञ्जूषा said...

धुआँ पहेन चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
होके बेहद अकेली,
पीछे छूट चली...

बहुत खूब...

धुआं-धुआं होती रही शमा
बस जलने की वजह ढूंढ न पायी.....
'अदा'

Prem said...

धुआं पहन चली गई
शमा एक जली हुई बहुत सुंदर बधाई प्रेम