मोहब्बतों की कीमतें चुकाते,
मैने देखे है,
तमाम जिस्म और मन,
अब नही जाता मैं कभी
अरमानो की कब्रगाह की तरफ़।
दर्द बह सकता नहीं,
दरिया की तरह,
जाके जम जाता है,
लहू की मांनिद,
थोडी देर में!
अश्क से गर कोई
बना पाता नमक,
ज़िन्दगी खुशहाल,
कब की हो गई होती।
रिश्तो के खिलौने,
सिर्फ़ बहला सकते है,
दुखी मन को,
ज़िन्दगी गुजारने को,
पैसे चाहिये!!!!!!
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Friday, December 31, 2010
Tuesday, December 14, 2010
लडकियाँ और आदमी!"कविता" पर भी!
लडकियाँ कितनी ,
सहजता से,
बेटी से नानी बन जातीं है!
लडकियाँ आखिर,
लडकियाँ होती हैं!
शिव में ’इ’ होती है,
लडकियाँ,
वो न होतीं तो,
’शिव’ शव होते!
’जीवन’ में ’ई’,
होतीं हैं लडकियाँ
वो न होतीं तो,
वन होता जीव-’न’ न होता!
या ’जीव’ होता जीव-न, न होता!
और ’आदमी’ में भी,
’ई’ होतीं हैं,यही लडकियाँ!
पर आदमी! आदमी ही होता है!
और आदमी लडता रह जाता है,
अपने इंसान और हैवानियत के,
मसलों से!
आखिर तक!
फ़िर भी कहता है,
आदमी!
क्यों होती है?
ये ’लडकियाँ’!
हालाकि,
न हों उसके जीवन में,
तो रोता है!
ये आदमी!
है न कितना अजीब ये,
आदमी!
Saturday, December 4, 2010
गुमशुदा की तलाश! "कविता" पर भी
जिस ने सुख दुख देखा हो।
माटी मे जो खेला हो,
बुरा भला भी झेला हो।
सिर्फ़ गुलाब न हो,छाँटें
झोली में हो कुछ काँटे।
अनुभव की वो बात करे,
कोरा ज्ञान नहीं बाँटे।
मेले बीच अकेला हो,
ज्ञानी होकर चेला हो।
हर पल जिसने जीया हो,
अमिय,हलाहल पीया हो।
पौधा एक लगाया हो,
अतिथि देख हर्षाया हो।
डाली कोई न काटी हो,
मुस्काने हीं बाँटी हो।
सच से जो न मुकरा हो,
भरी तिजोरी फ़ुकरा हो।
मेहनत से ही कमाता हो,
खुद पे न इतराता हो।
अधिक नहीं वो खाता हो
दुर्बल को न सताता हो ।
थोडी दारु पीता हो,
पर इसी लिये न जीता हो।
अपने मान पे मरता हो,
इज़्ज़त सबकी करता हो।
ईश्वर का अनुरागी हो,
सब धर्मों से बागी हो।
हर स्त्री का मान करें
तुलसी उवाच मन में न धरे।
(डोल,गंवार........)
भाई को पहचाने जो,
दे न उसको ताने जो।
पैसे पे न मरता हो,
बातें सच्ची करता हो।
भला बुरा पहचाने जो,
मन ही की न माने जो।
कभी नही शर्माता हो,
लालच से घबराता हो।
ऐसा एक मनुज ढूँडो,
अग्रज या अनुज ढूँडो।
खुद पर ज़रा नज़र डालो,
आस पास देखो भालो।
ऐसा गर इंसान मिले,
मानो तुम भगवान मिलें!
उसको दोस्त बना लेना,
मीत समझ अपना लेना।
जीवन में सुख पाओगे,
कभी नहीं पछताओगे।
Monday, November 8, 2010
ताल्लुकातों की धुंध! "कविता" पर भी!
पता नहीं क्यों,
जब भी मैं किसी से मिलता हूं,
अपना या बेगाना,
मुझे अपना सा लगता है!
और अपने अंदाज़ में
मैं खिल जाता हूं,
जैसे सर्दी की धूप,
मैं लिपट जाता हूं,
जैसे जाडे में लिहाफ़,
मै चिपक जाता हूं,
जैसे मज़ेदार किताब,
मैं याद आता हूं
जैसे भूला हिसाब,
(पांच रुप्पईया, बारह आना)
मुझे कोई दिक्कत नहीं,
अपने इस तरीके से लेकिन,
पर अब सोचता हूं,
तो लगता है,
लोग हैरान ओ परेशान हो जाते हैं,
इतनी बेतकक्लुफ़ी देखकर,
फ़िर मुझे लगता है,
शायद गलती मेरी ही है,
अब लोगों को आदत नहीं रही,
इतने ख़ुलूस और बेतकल्लुफ़ी से मिलने की,
लोग ताल्लुकातों की धुंध में
रहना पसंद करते है,
शायद किसी
’थ्रिल’ की तलाश में
जब भी मिलो किसी से,
एक नकाब ज़रूरी है,
जिससे सामने वाला
जान न पाये कि असली आप,
दरअसल,
है कौन?
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Wednesday, October 20, 2010
दुल्हनिया...!
ना,ना,न छूना घूंघटा,
सहमी सिमटी है दुल्हनिया,
अभी छलके हैं इस के नैना,
यादों में है बाबुल अपना!
आँखों से कजरा बह गया,
बालों में गजरा मुरझाया,
हैं हिनाभरी हथेलियाँ,
याद आ रही हैं सहेलियाँ...
दादी औ माँ में उलझा है ज़ेहन,
उसमे बसा है नैहरका आँगन,
धूप में बरसती सावनी फुहार,
फूल बरसाता हारसिंगार...
गीली मिट्टी पे मोलश्री के फूल,
नीम के तिनकों में पिरोये हार,
मेलों के तोहफे,बहनका दुलार,
अभी यही है,इसका सिंगार!
सहमी सिमटी है दुल्हनिया,
अभी छलके हैं इस के नैना,
यादों में है बाबुल अपना!
आँखों से कजरा बह गया,
बालों में गजरा मुरझाया,
हैं हिनाभरी हथेलियाँ,
याद आ रही हैं सहेलियाँ...
दादी औ माँ में उलझा है ज़ेहन,
उसमे बसा है नैहरका आँगन,
धूप में बरसती सावनी फुहार,
फूल बरसाता हारसिंगार...
गीली मिट्टी पे मोलश्री के फूल,
नीम के तिनकों में पिरोये हार,
मेलों के तोहफे,बहनका दुलार,
अभी यही है,इसका सिंगार!
Friday, October 15, 2010
स्याह अंधेरे..
बने रहनुमा हमारे,
कई राज़ डरावने,
आ गए सामने, बन नज़ारे,
बंद चश्म खोल गए,
सचके साक्षात्कार हो गए,
हम उनके शुक्रगुजार बन गए...
बेहतर हैं यही साये,
जिसमे हम हो अकेले,
ना रहें ग़लत मुगालते,
मेहेरबानी, ये करम
बड़ी शिद्दतसे वही कर गए,
चाहे अनजानेमे किए,
हम आगाह तो हो गए....
जो नही थे माँगे हमने,
दिए खुदही उन्होंने वादे,
वादा फरोशी हुई उन्हीसे,
बर्बादीके जश्न खूब मने,
ज़ोर शोरसे हमारे आंगनमे...
इल्ज़ाम सहे हमीने...
ऐसेही नसीब थे हमारे....
Friday, October 1, 2010
चांदनी रात और ज़िन्दगी!By 'Ktheleo'
खुशनुमा माहौल में भी गम होता है,
हर चांदनी रात सुहानी नहीं होती।
भूख, इश्क से भी बडा मसला है,
हर एक घटना कहानी नहीं होती।
दर्द की कुछ तो वजह रही होगी,
हर तक़लीफ़ बेमानी नही होती।
श्याम को ढूंढ के थक गई होगी,
हर प्रेम की मारी दिवानी नही होती।
शाम होते ही रात का अहसास,
विदाई सूरज की सुहानी नहीं होती।
हर इंसान गर इसे समझ लेता,
ज़िन्दगी पानी-पानी नहीं होती।
Tuesday, September 28, 2010
किस नतीजेपे पहुँचे?
बाबरी मस्जिद तथा राम मंदिर के नतीजे की तारीख आगे और आगे बढ़ती ही जा रही है । काश ! हम इस बात को इतनी तवज्जो ना देते! काश वहाँ कोई अनाथालय बन जाये...बच्चे केवल बच्चे बन के रहें...वो गीत याद आ रहा है," तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा!"
ये रचना तो पुरानी है...ऐसी ही किसी वारदात के समय लिखी थी...फिर एक बार एक हिन्दुस्तानी की हैसियत से ललकारना चाहती हूँ...के हम सब केवल इंसान बनके रहें...कोई जाती का हममे भेद ना हो..
बुतपरस्तीसे हमें गिला,
सजदेसे हमें शिकवा,
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
वोभी तय करनेमे गुज़ारे !
आख़िर किस नतीजेपे पहुँचे?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...
फ़सादोंमे ना हिंदू मरे
ना मुसलमाँ ही मरे,
वो तो इन्सां थे,जो मरे!
उन्हें तो मौतने बचाया
वरना ज़िंदगी, ज़िंदगी है,
क्या हश्र कर रही है
हमारा,हम जो बच गए?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...
देखती हमारीही आँखें,
ख़ुद हमाराही तमाशा,
बनती हैं खुदही तमाशाई
हमारेही सामने ....!
खुलती नही अपनी आँखें,
हैं ये जबकि बंद होनेपे!
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
सिर्फ़ चार दिन मिले..!
ये रचना तो पुरानी है...ऐसी ही किसी वारदात के समय लिखी थी...फिर एक बार एक हिन्दुस्तानी की हैसियत से ललकारना चाहती हूँ...के हम सब केवल इंसान बनके रहें...कोई जाती का हममे भेद ना हो..
बुतपरस्तीसे हमें गिला,
सजदेसे हमें शिकवा,
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
वोभी तय करनेमे गुज़ारे !
आख़िर किस नतीजेपे पहुँचे?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...
फ़सादोंमे ना हिंदू मरे
ना मुसलमाँ ही मरे,
वो तो इन्सां थे,जो मरे!
उन्हें तो मौतने बचाया
वरना ज़िंदगी, ज़िंदगी है,
क्या हश्र कर रही है
हमारा,हम जो बच गए?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...
देखती हमारीही आँखें,
ख़ुद हमाराही तमाशा,
बनती हैं खुदही तमाशाई
हमारेही सामने ....!
खुलती नही अपनी आँखें,
हैं ये जबकि बंद होनेपे!
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
सिर्फ़ चार दिन मिले..!
Monday, September 20, 2010
हर मन की"अनकही"!By 'Ktheleo'
मैं फ़ंस के रह गया हूं!
अपने
जिस्म,
ज़मीर,
ज़ेहन,
और
आत्मा
की जिद्दोजहद में,
जिस्म की ज़रूरतें,
बिना ज़ेहन के इस्तेमाल,
और ज़मीर के कत्ल के,
पूरी होतीं नज़र नहीं आती!
ज़ेहन के इस्तेमाल,
का नतीज़ा,
अक्सर आत्मा पर बोझ
का कारण बनता लगता है!
और ज़मीर है कि,
किसी बाजारू चीज!, की तरह,
हर दम बिकने को तैयार!
पर इस कशमकश ने,
कम से कम
मुझे,
एक तोहफ़ा तो दिया ही है!
एक पूरे मुकम्मल "इंसान"की तलाश का सुख!
मैं जानता हूं,
एक दिन,
खुद को ज़ुरूर ढूंड ही लूगां!
वैसे ही!
जैसे उस दिन,
बाबा मुझे घर ले आये थे,
जब मैं गुम गया था मेले में!
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Saturday, September 11, 2010
कहकशां यानि आकाशगंगा! By 'Ktheleo'
ऐ खुदा,
हर ज़मीं को एक आस्मां देता क्यूं है?
उम्मीद को फ़िर से परवाज़ की ज़ेहमत!
नाउम्मीदी की आखिरी मन्ज़िल है वो।
हर आस्मां को कहकशां देता क्यूं है?
आशियानों के लिये क्या ज़मीं कम है?
आकाशगंगा के पार से ही तो लिखी जाती है,
कभी न बदलने वाली किस्मतें!
दर्द को तू ज़ुबां देता क्यूं है?
कितना आसान है खामोशी से उसे बर्दाश्त करना,
अनकहे किस्सों को बयां देता क्यूं है?
किस्से गम-ओ- रुसवाई का सबब होते है|
क्या ज़रूरत है,
तेरे इस तमाम ताम झाम की?
ज़िन्दगी!
बच्चे की मुस्कान की तरह
बेसबब!!
और
दिलनशीं!
भी तो हो सकती थी!
Monday, September 6, 2010
वो कसक भी नही....
ऐसा नही कि तुम्हें हम से मुहब्बत नही ,
ये भी सच है कि, दिल में तुम्हारे, हमारे लिए,
पहली-सी अहमियत नही,वो कसक भी नही।
हज़ार वादे किये कि मिलेंगे वहीँ कहीँ,
ना मिलने की कोई वजह भी कही नही,
हमने इंतज़ार किया इसकी परवाह नही?
किसी दोराहे पे आप खड़े तो नही?
मोड़ लेना चाहते हो,कहते क्यों नही?
मेरी राह से तुम्हारी रहगुज़र मुमकिन नही?
ये भी सच है कि, दिल में तुम्हारे, हमारे लिए,
पहली-सी अहमियत नही,वो कसक भी नही।
हज़ार वादे किये कि मिलेंगे वहीँ कहीँ,
ना मिलने की कोई वजह भी कही नही,
हमने इंतज़ार किया इसकी परवाह नही?
किसी दोराहे पे आप खड़े तो नही?
मोड़ लेना चाहते हो,कहते क्यों नही?
मेरी राह से तुम्हारी रहगुज़र मुमकिन नही?
Friday, August 20, 2010
"कविता" पर ,खुद की मज़ार!
मैं तेरे दर से ऐसे गुज़रा हूं,
मेरी खुद की, मज़ार हो जैसे!
वो मेरे ख्वाब में यूं आता है,
मुझसे ,बेइन्तिहा प्यार हो जैसे!
अपनी हिचकी से ये गुमान हुआ,
दिल तेरा बेकरार हो जैसे!
परिंद आये तो दिल बहल गया,
खिज़ां में भी, बहार हो जैसे!
दुश्मनो ने यूं तेरा नाम लिया,
तू भी उनमें, शुमार हो जैसे!
कातिल है,लहू है खंज़र पे,
मुसकुराता है,कि यार हो जैसे!
Saturday, August 14, 2010
पन्द्रह अगस्त दो हज़ार दस!
आज़ादी मिल गई हमको,
चलो सडको पे थूकें!
आज़ादी मिल गई हमको,
चलो ट्रैनों को फ़ूकें!
आज़ादी मिल गई हमको,
चलो लोगों को कुचलें!
आज़ादी मिल गई हमको,
चलो पत्थर उछालें!
आज़ादी मिल गई हमको,
चलो घर को जला लें!
आज़ादी मिल गई हमको,
चलो घोटले कर लें!
आज़ादी मिल गई हमको,
तिज़ोरी नोटों से भर लें!
आज़ादी मिल गई हमको,
चलो पेडों को काटें!
आज़ादी मिल गई हमको,
चलो भूखों को डांटें!
आज़ादी मिल गई हमको,
चलो सूबों को बांटें!
गर भर गया दिल जश्न से तो चलो,
इतना कर लो,
शहीदों की याद में सजदा कर लो!
न कभी वो करना जो,
आज़ादी को शर्मसार करे,
खुद का सर झुके और
शहीदों की कुर्बानी को बेकार करे!
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तुम और हम सब,
दर्द,
पन्द्रह अगस्त,
सच,
हम
Thursday, August 12, 2010
खता किसने की?
एक पुरानी रचना जिसे 15 अगस्तके पर्व पे पुनः पोस्ट कर रही हूँ ...
इलज़ाम किसपे लगे?
सज़ा किसको मिली?
गडे मुर्दोंको गडाही छोडो,
लोगों, थोडा तो आगे बढो !
छोडो, शिकवोंको पीछे छोडो,
लोगों , आगे बढो, आगे बढो !
क्या मर गए सब इन्सां ?
बच गए सिर्फ़ हिंदू या मुसलमाँ ?
किसने हमें तकसीम किया?
किसने हमें गुमराह किया?
आओ, इसी वक़्त मिटाओ,
दूरियाँ और ना बढाओ !
चलो हाथ मिलाओ,
आगे बढो, लोगों , आगे बढो !
सब मिलके नयी दुनिया
फिर एकबार बसाओ !
प्यारा-सा हिन्दोस्ताँ
यारों दोबारा बनाओ !
सर मेरा हाज़िर हो ,
झेलने उट्ठे खंजरको,
वतन पे आँच क्यों हो?
बढो, लोगों आगे बढो!
हमारी अर्थीभी जब उठे,
कहनेवाले ये न कहें,
ये हिंदू बिदा ले रहा,
इधर देखो, इधर देखो
ना कहें मुसलमाँ
जा रहा, कोई इधर देखो,
ज़रा इधर देखो,
लोगों, आगे बढो, आगे बढो !
हरसूँ एकही आवाज़ हो
एकही आवाज़मे कहो,
एक इन्सां जा रहा, देखो,
गीता पढो, या न पढो,
कोई फ़र्क नही, फ़ातेहा भी ,
पढो, या ना पढो,
लोगों, आगे बढो,
वंदे मातरम की आवाज़को
इसतरहा बुलंद करो
के मुर्दाभी सुन सके,
मय्यत मे सुकूँ पा सके!
बेहराभी सुन सके,
तुम इस तरहाँ गाओ
आगे बढो, लोगों आगे बढो!
कोई रहे ना रहे,
पर ये गीत अमर रहे,
भारत सलामत रहे
भारती सलामत रहें,
मेरी साँसें लेलो,
पर दुआ करो,
मेरी दुआ क़ुबूल हो,
इसलिए दुआ करो !
तुम ऐसा कुछ करो,
लोगों आगे बढो, आगे बढो!!
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खता,
गुमराह,
वंदे मातरम,
सज़ा,
हिंदू या मुसलमाँ ?,
हिन्दोस्ताँ
Saturday, August 7, 2010
"कविता" पर भी, दस्तूर!
दस्तूर ये कि लोग सिर्फ़ नाम के दीवाने है,
और बुज़ुर्गों ने कहा के नाम में क्या रखा है!
लिफ़ाफ़ा देखकर औकात समझो हुज़ुर,
बात सब एक है पैगाम में क्या रखा है!
सोच मैली,नज़र मैली,फ़ितरतो रूह तक मैली,
अख्लाक़ साफ़ करो जनाब हमाम में क्या रखा है!
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Sunday, August 1, 2010
हमारी आँखें..
ना,ना,न झाँको इनमे,
बहुत बोलती हैं हमारी आँखें,
लब चाहे झूठ बोल जाएँ,
चुगलबाज़ हैं हमारी आँखें..
कुछ राज़ हैं गहरे,गहरे ,
जिन्हें खोलती हैं हमारी आँखें..
बहुत बोलती हैं हमारी आँखें,
लब चाहे झूठ बोल जाएँ,
चुगलबाज़ हैं हमारी आँखें..
कुछ राज़ हैं गहरे,गहरे ,
जिन्हें खोलती हैं हमारी आँखें..
Monday, July 26, 2010
Friday, July 23, 2010
इंतेहा-ए-दर्द! "Kavita" पर!
दर्द को मैं ,अब दवा देने चला हूं,
खुद को ही मैं बद्दुआ देने चला हूं!
बेवफ़ा को फ़ूल चुभने से लगे थे,
ताज कांटो का उसे देने चला हूं!
मर गया हूं ये यकीं तुमको नहीं है,
खुदकी मय्यत को कांधा देने चला हूं!
Sunday, July 11, 2010
तितलियां और चमन!
चमन में गुलों का नसीब होता है,
जंगली फ़ूल पे कब तितिलियां आतीं है।
कातिल अदा आपकी निराली है,
हमें कहां ये शोखियां आतीं हैं।
एक अरसे से मोहब्बत खोजता हूं,
अब कहां तोतली बोलियां आतीं है!
गद्दार हमसाये पे न भरोसा करना,
प्यार के बदले में, गोलियां आतीं हैं।
घर मेरा खास था, सो बरर्बाद हुया,
हर घर पे कहां बिजलियां आतीं हैं?
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जंगली फ़ूल पे कब तितिलियां आतीं है।
कातिल अदा आपकी निराली है,
हमें कहां ये शोखियां आतीं हैं।
एक अरसे से मोहब्बत खोजता हूं,
अब कहां तोतली बोलियां आतीं है!
गद्दार हमसाये पे न भरोसा करना,
प्यार के बदले में, गोलियां आतीं हैं।
घर मेरा खास था, सो बरर्बाद हुया,
हर घर पे कहां बिजलियां आतीं हैं?
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Saturday, July 3, 2010
गुलों से बात! अभी सिर्फ़ "कविता" पर!
"सच में" www.sachmein.blogspot.com
अज़ीब शक्स है वो गुलो से बात करता है,
अपनी ज़ुरूफ़ से भरे दिन को रात करता है.
वो जो कहता है भोली प्यार की बातें,
खामोश हो के खुदा भी समात करता है,
मां बन के कभी उसके प्यार का जादू
एक जर्रे: को भी काइनात करता है,
मेरे प्यार को वो भला कैसे जानेगा?
जब देखो मूंह बनाके बात करता है!
अज़ीब शक्स है वो गुलो से बात करता है,
अपनी ज़ुरूफ़ से भरे दिन को रात करता है.
वो जो कहता है भोली प्यार की बातें,
खामोश हो के खुदा भी समात करता है,
मां बन के कभी उसके प्यार का जादू
एक जर्रे: को भी काइनात करता है,
मेरे प्यार को वो भला कैसे जानेगा?
जब देखो मूंह बनाके बात करता है!
नसीब !"कविता" पर भी!
ज़िन्दगी अच्छी है,
पर अज़ीब है न?
जो बुरा है,
कितना लज़ीज़ है न?
गुनाह कर के भी वो सुकून से है,
अपना अपना ज़मीर, है न?
मैं तुझीसे मोहब्बत करता हूं
आखिर मेरा भी रकीब है न?
कैसे उठाऊं मै नाज़ तेरा,
कांधे पर सलीब है न?
उसका दुश्मन कोई नहीं है यहां
वो सच मे कितना बदनसीब है न?
सोना चांदी बटोरता रहता है,
बेचारा कितना गरीब है न?
दर्द पास आयेगा कैसे,
तू तो मेरे करीब है न?
Friday, June 25, 2010
ज़िन्दगी
ज़िन्दगी को उसकी कहानी कहने देते हैं,
चलो हम अपने शिकवे रहने देते है।
सच और झूंठ का फ़र्क तो फ़िर होगा,
दोस्तों को उनकी बात कहने देते है।
बुज़ुर्गों पे चलो इतना अहसान करें
बुढापे में उन्हे पुराने घर में रहने देते है।
दर्द में भी खुशी तलाश तो ली थी,
ख्याब मुझको कहां खुश रहने देते है?
Wednesday, June 23, 2010
मुझ संग खेलो होली...
अपने आसमाँ के लिए,
पश्चिमा रंग बिखेरती देखो,
देखो, नदियामे भरे
सारे रंग आसमाँ के,
किनारेपे रुकी हूँ कबसे,
चुनर बेरंग है कबसे,
उन्डेलो भरके गागर मुझपे!
भीगने दो तन भी मन भी
भाग लू आँचल छुडाके,
तो खींचो पीछेसे आके!
होती है रात, होने दो,
आँखें मूँदके मेरी, पूछो,
कौन हूँ ?पहचानो तो !
जानती हूँ , ख़ुद से बातें
कर रही हूँ , इंतज़ार मे,
खेल खेलती हूँ ख़ुद से,
हर परछायी लगे है,
इस तरफ आ रही हो जैसे,
घूमेगी नही राह इस ओरसे,
अब कभी भी तुम्हारी
मानती नही हूँ,जान के भी..
हो गयी हूँ पागल-सी,
कहते सब पडोसी...
चुपके से आओ ना,
मुझ संग खेलो होली ...
Saturday, June 12, 2010
ज़हेरका इम्तेहान.....
इम्तेहान मत लीजे,
हम क्या करे गर,
अमृतके नामसे हमें
प्यालेमे ज़हर दीजे !
अब तो सुनतें हैं,
पानीभी बूँदभर चखिए,
गर जियें तो और पीजे !
हैरत ये है,मौत चाही,
ज़हर पीके, नही मिली,
ज़हर में मिलावट मिले
तो बतायें, क्या कीजे?
तो सुना, मरना हैही,
तो बूँदभर अमृत पीजे,
जीना चाहो , ज़हर पीजे!
Thursday, June 10, 2010
"कविता" पर भी! पेड! "बरगद" का! (www.sachmein.blogspot.com)
आपने बरगद देखा है,कभी!
जी हां, ’बरगद’,
बरर्गर नहीं,
’ब र ग द’ का पेड!
माफ़ करें,
आजकल शहरों में,
पेड ही नहीं होते,
बरगद की बात कौन जाने,
और ये जानना तो और भी मुश्किल है कि,
बरगद की लकडी इमारती नहीं होती,
माने कि, जब तक वो खडा है,
काम का है,
और जिस दिन गिर गया,
पता नही कहां गायब हो जाता है,
मेरे पिता ने बताया था ये सत्य एक दिन!
जब वो ज़िन्दा थे!
अब सोचता हूं,
मोहल्ले के बाहर वाली टाल वाले से पूछुंगा कभी,
क्या आप ’बरगद’ की लकडी खरीदते हो?
भला क्यों नहीं?
क्या बरगद की लकडी से ईमारती सामान नहीं बनता?
पता नहीं क्यों!
Thursday, June 3, 2010
Thursday, May 27, 2010
इसे कोई न पढे! "कविता" पर भी!
थाली के बैगंन,
लौटे,
खाली हाथ,भानुमती के घर से,
बिन पैंदी के लोटे से मिलकर,
वहां ईंट के साथ रोडे भी थे,
और था एक पत्थर भी,
वो भी रास्ते का,
सब बोले अक्ल पर पत्थर पडे थे,
जो गये मिलने,पत्थर के सनम से,
वैसे भानुमती की भैंस,
अक्ल से थोडी बडी थी,
और बीन बजाने पर,
पगुराने के बजाय,
गुर्राती थी,
क्यों न करती ऐसा?
उसका चारा जो खा लिया गया था,
बैगन के पास दूसरा कोई चारा था भी नहीं,
वैसे तो दूसरी भैंस भी नहीं थी!
लेकिन करे क्या वो बेचारा,
लगा हुया है,तलाश में
भैंस मिल जाये या चारा,
बेचारा!
बीन सुन कर
नागनाथ और सांपनाथ दोनो प्रकट हुये!
उनको दूध पिलाने पर भी,
उगला सिर्फ़ ज़हर,
पर अच्छा हुआ के वो आस्तीन में घुस गये,
किसकी? आज तक पता नहीं!
क्यों कि बदलते रहते है वो आस्तीन,
मौका पाते ही!
आयाराम गयाराम की तरह।
भानुमती के पडोसी भी कमाल के,
जब तब पत्थर फ़ेकने के शौकीन,
जब कि उनके अपने घर हैं शीशे के!
सारे किरदार सच्चे है,
और मिल जायेंगे
किसी भी राजनीतिक समागम में
प्रतिबिम्ब में नहीं,
नितांत यर्थाथ में।
Tuesday, May 18, 2010
’छ्ज्जा और मुन्डेर’ "कविता' पर भी!
कई बार
शैतान बच्चे की तरह
हकीकत को गुलेल बना कर
उडा देता हूं,
तेरी यादों के परिंद
अपने ज़ेहन की,
मुन्डेरो से,
पर हर बार एक नये झुंड की
शक्ल में
आ जातीं हैं और
चहचहाती हैं
तेरी,यादें
और सच पूछो तो
अब उनकी आवाज़ें
टीस की मानिन्द चुभती सी लगने लगीं है।
मैं और मेरा मन
दोनो जानते हैं,
कि आती है
तेरी याद,
अब मुझे,ये अहसास दिलाने कि
तू नहीं है,न अपने
छ्ज्जे पर
और न मेरे आगोश में।
Also available at "सच में" www.sachmein.blogspot.com
Friday, May 14, 2010
’छ्ज्जा और मुन्डेर’ "कविता' पर भी!
कई बार
शैतान बच्चे की तरह
हकीकत को गुलेल बना कर
उडा देता हूं,
तेरी यादों के परिंद
अपने ज़ेहन की,
मुन्डेरो से,
पर हर बार एक नये झुंड की
शक्ल में
आ जातीं हैं और
चहचहाती हैं
तेरी,यादें
और सच पूछो तो
अब उनकी आवाज़ें
टीस की मानिन्द चुभती सी लगने लगीं है।
मैं और मेरा मन
दोनो जानते हैं,
कि आती है
तेरी याद,
अब मुझे,ये अहसास दिलाने कि
तू नहीं है,न अपने
छ्ज्जे पर
और न मेरे आगोश में।
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