उस राज़ को क्या राज़ कहें,
जो चौराहों पे सरे आम हो?
जो 'राज़' हमारे पहलू में है,
वो हर गलीमे हो,उसे क्या कहें?
यही के,जो ख़ुद को 'ख़ास' कहें,
वो बाज़ारे आम से दूर रहें?
छवी ,जो उनकी हमारी आँखों में है,
वही रखें,उसे क्यों गिराएँ हैं?
Monday, August 31, 2009
Saturday, August 29, 2009
२ क्षणिकाएँ !
दिल जलाये रक्खा था....
दिल जलाये रक्खा था,
तेरी रौशने रातों की खातिर,
शम्मं हर रात जली,
सिर्फ़ तेरे खातिर...
सैकड़ों गुज़रे गलीसे,
बंद पाये दरवाज़े,
या झरोखे,दिले बज़्म के,
सिवा उनके लिए,
वो जो मशहूर हुए,
वादा फरोशी के लिए...
२) चले आएँगे तेरे पास!
चले आएँगे तेरे पास,
जब तू ठहर जाएगा...
अपनी रफ़्तार कम है,
ऐसे तो तू बिछड़ जाएगा...
पास आनेके सौ बहाने करने वाले ,
दूर जानेकी एक वजह तो बता देता...
दिल जलाये रक्खा था,
तेरी रौशने रातों की खातिर,
शम्मं हर रात जली,
सिर्फ़ तेरे खातिर...
सैकड़ों गुज़रे गलीसे,
बंद पाये दरवाज़े,
या झरोखे,दिले बज़्म के,
सिवा उनके लिए,
वो जो मशहूर हुए,
वादा फरोशी के लिए...
२) चले आएँगे तेरे पास!
चले आएँगे तेरे पास,
जब तू ठहर जाएगा...
अपनी रफ़्तार कम है,
ऐसे तो तू बिछड़ जाएगा...
पास आनेके सौ बहाने करने वाले ,
दूर जानेकी एक वजह तो बता देता...
Friday, August 28, 2009
बिरहन
खोयीसी बिरहन जब
उस ऊँचे टीलेपे
सूने महल के नीचे
या फिर खंडहर के पीछे
गीत मिलन के गाती है,
पत्थर दिल रूह भी
फूट फूट के रोती है।
हर वफ़ा शर्माती है,
जब गीत वफ़ाके सुनती है....
खेतोमे,खालिहानोमे,
अंधेरोंमे याकि,
चाँदनी रातों में ,
सूखे तालाब के परे,
या नदियाकी मौजोंपे
कभी जंगल पहाडोंमे.....
मीलों फैले रेगिस्तानोमे
या सागरकी लहरोंपे
जब उसकी आवाज़
लहराती है,
हर लेहेर थम जाती है,
बिजलियाँ बदरीमे
छुप जाती हैं.....
हर तरफ खामोशी ही
खामोशी सुनायी देती है।
मेरी दादी कहती है
सुनी थी ये आवाज़ें,
उनकीभी दादीने...
उस ऊँचे टीलेपे
सूने महल के नीचे
या फिर खंडहर के पीछे
गीत मिलन के गाती है,
पत्थर दिल रूह भी
फूट फूट के रोती है।
हर वफ़ा शर्माती है,
जब गीत वफ़ाके सुनती है....
खेतोमे,खालिहानोमे,
अंधेरोंमे याकि,
चाँदनी रातों में ,
सूखे तालाब के परे,
या नदियाकी मौजोंपे
कभी जंगल पहाडोंमे.....
मीलों फैले रेगिस्तानोमे
या सागरकी लहरोंपे
जब उसकी आवाज़
लहराती है,
हर लेहेर थम जाती है,
बिजलियाँ बदरीमे
छुप जाती हैं.....
हर तरफ खामोशी ही
खामोशी सुनायी देती है।
मेरी दादी कहती है
सुनी थी ये आवाज़ें,
उनकीभी दादीने...
Wednesday, August 26, 2009
Monday, August 24, 2009
ताल्लुकात का सच!
मुझसे कह्ते तो सही ,जो रूठना था,
मुझे भी , झंझटों से छूटना था.
तमाम अक्स धुन्धले से नज़र आने लगे थे,
आईना था पुराना, टूटना था.
बात सीधी थी, मगर कह्ता मै कैसे,
कहता या न कहता, दिल तो टूटना था.
मैं लाया फूल ,तुम नाराज़ ही थे,
मैं लाता चांद, तुम्हें तो रूठना था.
याद तुमको अगर आती भी मेरी,
था दरिया का किनारा , छूटना था.
ये कविता मैंने "सच में" और "कविता" Blog पे साथ साथ Post की है. जिससे दोनो Blogs के uncommon पाठक भी मज़ा ले सकें!
The same is also avilable at www.sachmein.blogspot.com
Wednesday, August 19, 2009
शमा, अपनेही मज़ारकी.....
रुसवाईयों से कितना डरें, के,
डर के सायेमे जीते हैं हम !
या कि रोज़ मरते हैं हम ?
लिख डाला आपने दीवारों तकपे,
उसे तो मिटाभी सकते हैं हम...
आख़िर कबतक यही करेंगे हम?
डरके ही सायेमे दम तोडेंगे हम?
ये रौशनी नही उधारकी,
सदियोंसे अपनेही मज़ारपे,
जलते हुए चराग हैं हम....
जो दाग ,दामने दिलपे मिले,
वो मरकेभी न मिटा पाएँगे,
सोचते हैं, मूँदके अपनी आँखे,
काश! ये होता,वो ना होता,
गर ऐसा होता तो कैसा रहता....
जब कुछ नही बदल सकते हैं हम,
हरपल डरके सायेमे रहते हैं हम.....
बचीं हैं चंद आखरी साँसे,
अब तो हटा लो अपने साए ,
के कबसे तबाह हो चुके हैं हम....
याद रखना, गर निकलेगी हाय,
खुदही मिट जायेंगे आप,
बून्दभी पानीकी न होगी नसीब,
इसतरह तड़प जायेंगे आप,
डरके साए बन जायेंगे हम...
वैसे तो मिट ही चुके हैं,
हमें मिटानेकी तरकीबें करते,
क्या करें, कि, अपने गिरेबाँ मे
झाँक नही सकते हो तुम?
सब्रकी इन्तेहा हो गयी है,
अब खबरदार हो जाओ तुम,
पीठ मे नही, ख़ंजर,अब,
सीनेमे पार कर सकते हैं हम,
कबतक डरके रह सकते हैं हम?
अपनेही मज़ारका दिया हैं हम...
डर के सायेमे जीते हैं हम !
या कि रोज़ मरते हैं हम ?
लिख डाला आपने दीवारों तकपे,
उसे तो मिटाभी सकते हैं हम...
आख़िर कबतक यही करेंगे हम?
डरके ही सायेमे दम तोडेंगे हम?
ये रौशनी नही उधारकी,
सदियोंसे अपनेही मज़ारपे,
जलते हुए चराग हैं हम....
जो दाग ,दामने दिलपे मिले,
वो मरकेभी न मिटा पाएँगे,
सोचते हैं, मूँदके अपनी आँखे,
काश! ये होता,वो ना होता,
गर ऐसा होता तो कैसा रहता....
जब कुछ नही बदल सकते हैं हम,
हरपल डरके सायेमे रहते हैं हम.....
बचीं हैं चंद आखरी साँसे,
अब तो हटा लो अपने साए ,
के कबसे तबाह हो चुके हैं हम....
याद रखना, गर निकलेगी हाय,
खुदही मिट जायेंगे आप,
बून्दभी पानीकी न होगी नसीब,
इसतरह तड़प जायेंगे आप,
डरके साए बन जायेंगे हम...
वैसे तो मिट ही चुके हैं,
हमें मिटानेकी तरकीबें करते,
क्या करें, कि, अपने गिरेबाँ मे
झाँक नही सकते हो तुम?
सब्रकी इन्तेहा हो गयी है,
अब खबरदार हो जाओ तुम,
पीठ मे नही, ख़ंजर,अब,
सीनेमे पार कर सकते हैं हम,
कबतक डरके रह सकते हैं हम?
अपनेही मज़ारका दिया हैं हम...
Saturday, August 15, 2009
पीछेसे वार मंज़ूर नही...
अँधेरों इसके पास आना नही,
बुझनेपे होगी,"शमा"बुझी नही,
बुलंद एकबार ज़रूर होगी,
मत आना चपेट में इसकी,
के ये अभी बुझी नही!
दिखे है, जो टिमटिमाती,
कब ज्वाला बनेगी,करेगी,
बेचिराख,इसे ख़ुद ख़बर नही!
उठेगी धधक , बुझते हुएभी,
इसे पीछेसे वार मंज़ूर नही!
कोई इसका फानूस नही,
तेज़ हैं हवाएँ, उठी आँधी,
बताओ,है शमा कोई ऐसी,
जो आँधीयों से लड़ी नही?
ऐसी,जो आजतक बुझी नही?
सैंकडों जली,सैंकडों,बुझी!
हुई बदनाम ,गुमनाम कभी,
है शामिल क़ाफ़िले रौशनी ,
जिन्हें,सदियों सजाती रही!
एक बुझी,तो सौ जली॥!
चंद माह पूर्व की रचना है..
बुझनेपे होगी,"शमा"बुझी नही,
बुलंद एकबार ज़रूर होगी,
मत आना चपेट में इसकी,
के ये अभी बुझी नही!
दिखे है, जो टिमटिमाती,
कब ज्वाला बनेगी,करेगी,
बेचिराख,इसे ख़ुद ख़बर नही!
उठेगी धधक , बुझते हुएभी,
इसे पीछेसे वार मंज़ूर नही!
कोई इसका फानूस नही,
तेज़ हैं हवाएँ, उठी आँधी,
बताओ,है शमा कोई ऐसी,
जो आँधीयों से लड़ी नही?
ऐसी,जो आजतक बुझी नही?
सैंकडों जली,सैंकडों,बुझी!
हुई बदनाम ,गुमनाम कभी,
है शामिल क़ाफ़िले रौशनी ,
जिन्हें,सदियों सजाती रही!
एक बुझी,तो सौ जली॥!
चंद माह पूर्व की रचना है..
Thursday, August 13, 2009
कहाँ हो?
कहाँ हो?खो गए हो?
पश्चिमा अपने आसमाके
लिए रंग बिखेरती देखो,
देखो, नदियामे भरे
सारे रंग आसमाँ के,
किनारेपे रुकी हूँ कबसे,
चुनर बेरंग है कबसे,
उन्डेलो भरके गागर मुझपे!
भीगने दो तन भी मन भी
भाग लू आँचल छुडाके,
तो खींचो पीछेसे आके!
होती है रात, होने दो,
आँखें मूँदके मेरी, पूछो,
कौन हूँ ?पहचानो तो !
जानती हूँ , ख़ुद से बातें
कर रही हूँ , इंतज़ार मे,
खेल खेलती हूँ ख़ुद से,
हर परछायी लगे है,
इस तरफ आ रही हो जैसे,
घूमेगी नही राह इस ओरसे,
अब कभी भी तुम्हारी
मानती नही हूँ,जान के भी..
हो गयी हूँ पागल-सी,
कहते सब पडोसी,
पर किसके लिए हूँ,
दुनियाँ हरगिज़ नही जानती..
पश्चिमा अपने आसमाके
लिए रंग बिखेरती देखो,
देखो, नदियामे भरे
सारे रंग आसमाँ के,
किनारेपे रुकी हूँ कबसे,
चुनर बेरंग है कबसे,
उन्डेलो भरके गागर मुझपे!
भीगने दो तन भी मन भी
भाग लू आँचल छुडाके,
तो खींचो पीछेसे आके!
होती है रात, होने दो,
आँखें मूँदके मेरी, पूछो,
कौन हूँ ?पहचानो तो !
जानती हूँ , ख़ुद से बातें
कर रही हूँ , इंतज़ार मे,
खेल खेलती हूँ ख़ुद से,
हर परछायी लगे है,
इस तरफ आ रही हो जैसे,
घूमेगी नही राह इस ओरसे,
अब कभी भी तुम्हारी
मानती नही हूँ,जान के भी..
हो गयी हूँ पागल-सी,
कहते सब पडोसी,
पर किसके लिए हूँ,
दुनियाँ हरगिज़ नही जानती..
कुछ मुक्तक
"यह वो दौलत है जो बाँटे से भी बढ़ जाती है,
ज़रा हँस दे ओ भीगी पलकों को छुपाने वाले."
पूरी ग़ज़ल फिर कभी, अभी तो चंद मुक्तकों की बारी है,
*************************************************************************************
अच्छा हुआ के आप भी जल्दी समझ गये,
दीवानगी है शायरी,कोई बढ़िया शगल नही.
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जन्म दिन भी अज़ीब होते हैं,
लोग तॉहफ़ों के बोझ ढोते हैं,
कितनी अज़ीब बात है लेकिन,
पैदा होते ही बच्चे रोते हैं.
**************************************************************************************
जब मैं पैदा हुआ तो रोया था,
फिर ये बात बिसार दी मैने,
मौत की दस्तक़ हुई तो ये जाना,
ज़िंदगी सो कर गुज़ार दी मैने.
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मेरी बर्बादी मे वो भी थे बराबर के शरीक़,
हां वही लोग जो,
मेरी म्य्यत पे फूट कर रोए.
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जज़्बात में अल्फ़ाज़ की ज़रूरत ही कहाँ हैं,
गुफ्तगू वो के तू सब जान गया,और मैं खामोश,यहाँ हूँ.
Wednesday, August 12, 2009
Tuesday, August 11, 2009
मंज़िले जानिब...
मंज़िले जानिब निकले तो थे,
पता नही कब रास्ते खो गए,
कभी हुए अंधेरे घनेरे,
कभी हुए तेज़ उजाले,
ऐसे के साये भी खो गए,
रहनुमा तो साथ थे,
पर वही गुमराह कर गए...
ना पश्चिम है न पूरब है,
ना उत्तर है ना दक्षिण है,
यहाँ शहर कैसे ढूँढें?
है तो बस वीरानगी है...
पता नही कब रास्ते खो गए,
कभी हुए अंधेरे घनेरे,
कभी हुए तेज़ उजाले,
ऐसे के साये भी खो गए,
रहनुमा तो साथ थे,
पर वही गुमराह कर गए...
ना पश्चिम है न पूरब है,
ना उत्तर है ना दक्षिण है,
यहाँ शहर कैसे ढूँढें?
है तो बस वीरानगी है...
Monday, August 10, 2009
दरारें.....!
रिश्तोंमे पड़ीं, दरारें इतनी,
के, मर्रम्मत के क़ाबिल नही रही,
छूने गयी जहाँ भी, दीवारें गिर गयीं...
क्या खोया, क्या मिट गया,या दब गया,
इस ढेर के नीचे,कोई नामोनिशान नहीं....
कुछ थाभी या नही, येभी पता नही...
मायूस खडी देखती हूँ, मलबा उठाना चाहती हूँ,
पर क्या करुँ? बेहद थक गयी हूँ !
लगता है, मानो मै ख़ुद दब गयी हूँ...
अरे तमाशबीनों ! कोई तो आगे बढो !
कुछ तो मेरी मदद करो, ज़रा हाथ बटाओ,
यहाँ मै, और कुछ नही, सफ़ाई चाहती हूँ...!!
फिर कोई बना ले अपना, महेल या झोंपडा,
उसके आशियाँ की ये हालत ना हो,
जी भर के दुआएँ देना चाहती हूँ...!!
सारी पुकारें मेरी हवामे उड़ गयीं...
कुछेक ने कहा, ये है तेरा किया कराया,
खुद्ही समेट इसे, हमें क्यों बुलाया ?
पुरानी रचना है..दोबारा पोस्ट कर रही हूँ..
के, मर्रम्मत के क़ाबिल नही रही,
छूने गयी जहाँ भी, दीवारें गिर गयीं...
क्या खोया, क्या मिट गया,या दब गया,
इस ढेर के नीचे,कोई नामोनिशान नहीं....
कुछ थाभी या नही, येभी पता नही...
मायूस खडी देखती हूँ, मलबा उठाना चाहती हूँ,
पर क्या करुँ? बेहद थक गयी हूँ !
लगता है, मानो मै ख़ुद दब गयी हूँ...
अरे तमाशबीनों ! कोई तो आगे बढो !
कुछ तो मेरी मदद करो, ज़रा हाथ बटाओ,
यहाँ मै, और कुछ नही, सफ़ाई चाहती हूँ...!!
फिर कोई बना ले अपना, महेल या झोंपडा,
उसके आशियाँ की ये हालत ना हो,
जी भर के दुआएँ देना चाहती हूँ...!!
सारी पुकारें मेरी हवामे उड़ गयीं...
कुछेक ने कहा, ये है तेरा किया कराया,
खुद्ही समेट इसे, हमें क्यों बुलाया ?
पुरानी रचना है..दोबारा पोस्ट कर रही हूँ..
Saturday, August 8, 2009
रुत बदल दे !
पार कर दे हर सरहद जो दिलों में ला रही दूरियाँ ,
इन्सानसे इंसान तक़सीम हो ,खुदाने कब चाहा ?
लौट के आयेंगी बहारें ,जायेगी ये खिज़ा,
रुत बदल के देख, गर, चाहती है फूलना!
मुश्किल है बड़ा,नही काम ये आसाँ,
दूर सही,जानिबे मंजिल, क़दम तो बढ़ा!
इन्सानसे इंसान तक़सीम हो ,खुदाने कब चाहा ?
लौट के आयेंगी बहारें ,जायेगी ये खिज़ा,
रुत बदल के देख, गर, चाहती है फूलना!
मुश्किल है बड़ा,नही काम ये आसाँ,
दूर सही,जानिबे मंजिल, क़दम तो बढ़ा!
Wednesday, August 5, 2009
ये सज़ा क्यों दे गए ?
सर आँखों पे चढाया जिन्हें हमने,
वो हमें निगाहों से गिरा गए,
सीता होनेका दावा न किया हमने,
वो ख़ुद को राम कह गए।
हम तो पहुँचे थे आँगन उनके,
प्यारभरी बदरी बनके,
तन मन सींचना चाहते थे,
बरसे तो,वो रेगिस्ताँ बन गए!
मंज़ूर थीं सारी सज़ाएँ ,
ख़ुद शामिले कारवाँ हो गए,
हमें एक उम्र तन्हाँ दे गए...
वो हमें निगाहों से गिरा गए,
सीता होनेका दावा न किया हमने,
वो ख़ुद को राम कह गए।
हम तो पहुँचे थे आँगन उनके,
प्यारभरी बदरी बनके,
तन मन सींचना चाहते थे,
बरसे तो,वो रेगिस्ताँ बन गए!
मंज़ूर थीं सारी सज़ाएँ ,
ख़ुद शामिले कारवाँ हो गए,
हमें एक उम्र तन्हाँ दे गए...
Monday, August 3, 2009
अनामिका
अनुचरी,अर्धागिंनी,भार्या
कोई भी नाम मैने तो नहीं सुझाया,
कोई भी नाम मैने तो नहीं सुझाया,
न ही,स्वयं के लिये चुने मैने सम्बोधन
जैसे कि प्राणनाथ,स्वामी आदि,
फ़िर कब हम दोनो बन्ध गये
इन शब्दों की ज़न्जीरों से.
क्या इन के परे भी है कोई
ऐसा सीधा और सरल सा,
रिश्ता जो कोमल तो हो,
पर मज़बूत इतना,
जैसे पेड से लिपटी बेल,
जैसे तिल के भीतर तेल
जैसे पुल से गुज़रती रेल,
’आइस-पाइस’ का खेल,
चलो क्यो बांधें इसे,
उपमाओं में
मैं और तुम क्या काफ़ी नहीं,
इस जीवन को परिभाषित करने के लिये?
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चिड़िया ग़र चुग जाये खेत....
सुना था मेरे बड़ों से,
चिड़िया खेत चुग जाये,
फ़ायदा नही रोनेसे!
ये कहावत चली आयी
गुज़रती हुई सदियों से,
ना भाषाका भेद
ना किसी देशकाही
खेत बोए गए,
पँछी चुगते गए,
लोग रोते रहे
इतिहास गवाह है
सिलसिला थमा नही
चलताही रहा
चलताही रहा !
चिड़िया खेत चुग जाये,
फ़ायदा नही रोनेसे!
ये कहावत चली आयी
गुज़रती हुई सदियों से,
ना भाषाका भेद
ना किसी देशकाही
खेत बोए गए,
पँछी चुगते गए,
लोग रोते रहे
इतिहास गवाह है
सिलसिला थमा नही
चलताही रहा
चलताही रहा !
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