Tuesday, June 30, 2009
ताल्लुकात का सच!
Thursday, June 25, 2009
भटकती हुई बदरी....
अपनेही बंद आसमानोंकी,
मुझे बरसनेकी इजाज़त नही....
वैसे तो मुझमे, नीरभी नही,
बिजुरीभी नही,युगोंसे हूँ सूखी,
पीछे छुपा कोई चांदभी नही....
चाहत एक बूँद नूरकी,
सदियोंसे जो मिली नही....
हो गयी हूँ आदी अंधेरों की...
के हूँ भटकती हुई बदरी,
अपनेही बंद आसमानोंकी....
तमन्नाएँ रखूँ, लाज़िम नही....
शमा।
Tuesday, June 23, 2009
शमा"को ऐसे जला गए...
दामनमे ख़ार छुपाये थे,
दामन ऐसा झटक गए,
तार,तार कर गए ,
गुल सब मुरझा गए...
पलकोंमे छुपाये दर्द थे,
होटोंपे हँसीके साये थे,
खोल दी आँखें तपाकसे,
हमें बे नक़ाब कर गए,
बालोंसे गुल गिरा गए.....
हम अपने गिरेबाँ में थे,
वो हर इकमे झाँकते थे,
बाहर किया अपने ही से
बेहयाका नाम दे गए,
गुल गिरके रो दिए....
वो तो मशहूर ही थे,
हमें सज़ाए शोहरत दे गए,
बेहद मशहूर कर गए,
लुटे तो हम गए,
इल्ज़ाम हमपे धर गए....
दर्द सरेआम हो गए,
चौराहेपे नीलाम हो गए,
आँखें बंद या खुली रखें,
पलकें तो वो झुका गए,
गेसूमे माटी भर गए...
बाज़ारके साथ हो लिए,
किस्सये-झूट कह गए,
अब किस शेहेरमे जाएँ?
हर चौखटके द्वार बंद हुए,
निशानों- राहेँ मिटा गए...
वो ये ना समझें,
हम अंधेरोंमे हैं,
उजाले तेज़ यूँ किए ,
साये भी छुप गए,
"शमाको" ऐसे,जला गए....
Sunday, June 21, 2009
दरख़्त ऊँचे थे...
अमलतास गुलमोहर
साथ खडे,पूरी बहारपे!
देखा कमाल कुदरत का,
घरकी छयामे खडे होके!
तपती गरमी मे देखे...
हम तो मुरझा गए थे
हल्की-सी किरण से!
बुलंद-ए हौसला कर के
खडे हुए धूप मे जाके!
तपती गरमी देखे...
दरख़्त खुदा के करिश्मे!
हम थे ज़मीं के ज़र्रे !
कैसे बराबरी हो उनसे ?
वो हमसे कितने ऊँचे थे!
तपती गरमी मे देखे...
आसमाँ छूती बाहों के,
साए शीतल, घनेरे,
कैसे भूँले,जिनके तले,
हम महफूज़ रह, पले थे!
तपती गरमी मे देखे थे...
Friday, June 19, 2009
मुकम्मल जहाँ ...
जानती हूँ नही मिलता!
मेरी जुस्तजू ना मुमकिन नहीं !
अरे, पैर रखनेको ज़मीं चाही
पूरी दुनिया तो नही माँगी?
मिली थी रौशनी,
नन्हें से जुगनूकी,
वो भी छीन ली
दिल भी जला लेती,
आँधियाँ वोभी बुझा गयीं...!
नाम की बस 'शम्म 'रह गयी,
अंधेरे दूर करनेकी चाहत थी,
तेरे नूर के रहते भी,
खुदाया! पूरी न हो सकी...
एक बगिया बनाएँ...
भोलेसे चेहरे पे किसी,
धीरेसे है टपकती ,
दो पंखुडियाँ नाज़ुक-सी,
मुसकाती हैं होटोंकी,
वही तो कविता कहलाती!
क्यों हम उसे गुनगुनाते नही?
क्यों बाहोंमे झुलाते नही?
क्यों देते हैं घोंट गला?
करतें हैं गुनाह ऐसा?
जो काबिले माफी नही?
फाँसी के फँदेके सिवा इसकी,
दूसरी कोई सज़ा नही??
किससे छुपाते हैं ये करतूते,
अस्तित्व जिसका चराचर मे,
वो हमारा पालनहार,
वो हमारा सर्जनहार,
कुछभी छुपता है उससे??
देखता हजारों आँखों से!!
क्या सचमे हम समझ नही पाते?
आओ, एक बगीचा बनायें,
जिसमे ये नन्हीं कलियाँ खिलाएँ,
इन्हें स्नेह्से नेहलायें,
महकेगी जिससे ज़िंदगी हमारी,
महक उठेगी दुनियाँ सारी...
मत असमय चुन लेना,
इन्हें फूलने देना,
एक दिन आयेगा ऐसा,
जब नाज़ करोगे इन कलियोंका......"
2 टिप्पणियाँ:
चराग के सायेमे .......
उड़ चली लंबे सफ़र पे,
थक के कुछ देर रुकी
वीरानसी डगर पे .....
गुज़रते राह्गीरने देखा उसे
तो हैरतसे पूछा उसे
'ये क्या हुआ तुझे?
ये लहूसा टपक रहा कैसे ?
नीरसा झर रहा कहाँसे?'
रूह बोली,'था एक कोई
जल्लाद जैसे के हो तुम्ही
पँख मेरे कटाये,
हर दिन रुलाया,
दिए सैंकडों ज़खम्भी,
उस क़ैद से हू उड़ चली!
था रौशनी ओरोंके लिए,
बना रहनुमा हज़ारोंके लिए
मुझे तो गुमराह किया,
उसकी लौने हरदम जलाया
मंज़िलके निशाँ तो क्या,
गुम गयी राहभी!
किरनके लिए रही तरसती
ना जानू कैसे मेरे दिन बीते
कितनी बीती मेरी रातें,
गिनती हो ना सकी
काले स्याह अंधेरेमे !
चल,जा,छोड़, मत छेड़ मुझे,
झंकार दूँ, मैं वो बीनाकी तार नही!
ग़र गुमशुदगीके मेरे
चर्चे तू सुने
कहना ,हाँ,मिली थी
रूह एक थकी हारी ,
साथ कहना येभी,
मैंने कहा था,मेरी
ग़ैर मौजूदगी
हो चर्चे इतने,
इस काबिल थी कभी?
खोजोगे मुझे,
कैसे,किसलिये?
मेरा अता ना पता कोई,
सब रिश्तोंसे दूर चली,
सब नाते तोड़ चली!
बरसों हुए वजूद मिटे
बात कल परसों की तो नही...
शमा
एक रात, अचानक नींद से जागी, और ये रचना लिखी....जैसे, कोई हाथ पकड़ के लिखवा रहा हो...और ऐसे अनुभव मुझे बार, बार हुए...जबकि, मै ना तो कवि कहलाने की क़ाबिलियत रखती हूँ, लेखक...
इसे इसके पहले भी पोस्ट किया था, आज दोबारा कर रही हूँ.."The light by a lonely path" पे जबसे लिखना बंद किया और URL भी बदल गयीं, मेरे पाठक काफ़ी असंजस में पड़ गए...क्षमा प्रार्थी हूँ, इस असुविधाके लिए !
Thursday, June 18, 2009
कीमत हँसी की.....
अश्कोंसे चुकायी हमने
पता नही और कितना
कर्ज़ रहा है बाक़ी
आँसू हैं, कि, थमते नही!
जिन्हे खोके आँखें रोयीं,
तनहा हुए, खातिर जिनकी,
वो कहाँ है येभी
अब हमे ख़बर नही,
दुआ है निकलती
उनके लिए, फिरभी......
पलके मूँद के भी,
नींदे हैं उड़ जातीं,
वीरान बस्तीमे दिलकी
वो बसते हैं आजभी!
तके है राह आज भी...
सिर्फ़ दरवाज़े नही,
हर खिड़की, बंद कर ली,
ना है, दरार कहीँ,
दूसरा आये कोई,
गुंजाईश रखी नही !
ये है,कैसी हैरानी,
हमारी दूर से भी
ख़बर ख़ूब है रहती
हर हँसी पे हमारी,
रखी है पहरेदारी...
होटोंपे आये तो सही
सौगाते ग़म औ'मायूसी,
बसी है, हैं पासही ...!
चाहे हो हल्की-सी
झपटी जाए,वो हँसी...
मत काटो इन्हें !!
कितने बेरहम हो, कर सकते हो कुछभी?
इसलिए कि ,ये चींख सकते नही?
ज़माने हुए,मै इनकी गोदीमे खेलती थी,
ये टहनियाँ मुझे लेके झूमती थीं,
कभी दुलारतीं, कभी चूमा करतीं,
मेरे खातिर कभी फूल बरसातीं,
तो कभी ढेरों फल देतीं,
कड़ी धूपमे घनी छाँव इन्हीने दी,
सोया करते इनके साये तले तुमभी,
सब भूल गए, ये कैसी खुदगर्जी?
कुदरत से खेलते हो, सोचते हो अपनीही....
सज़ा-ये-मौत,तुम्हें तो चाहिए मिलनी
अन्य सज़ा कोईभी,नही है काफी,
और किसी काबिल हो नही...
अए, दरिन्दे! करनेवाले धराशायी,इन्हें,
तू तो मिट ही जायेगा,मिटनेसे पहले,
याद रखना, बेहद पछतायेगा.....!
आनेवाली नस्ल्के बारेमे कभी सोचा,
कि उन्हें इन सबसे महरूम कर जायेगा?
मृत्युशय्यापे खुदको, कड़ी धूपमे पायेगा!!
शमा
4 comments:
- mark rai said...
-
आनेवाली नस्ल्के बारेमे कभी सोचा,
कि उन्हें इन सबसे महरूम कर जायेगा...
are shama jee..sochna to barason chod diya logo ne ...sochte to jo kutte jaisi haalat aane waali wo nahi aati ... ab to n ghar ke rahege aur n ghaat ke... - March 25, 2009 3:32 AM
- creativekona said...
-
शमा जी ,
आपका कमेन्ट और कविता दोनों पढी ...और निर्णय नहीं ले पा रहा की आपको किस रूप में संबोधित किया जाया .आप ने इतनी अच्छी कविता लिखी ...इतने सुन्दर भावों के साथ ...और खुद को कवि भी नहीं स्वीकार कर रही हैं ...
बात सिर्फ कविता की ही होती तब भी ठीक था ...आप लेख ,संस्मरण ,ललित निबंध सबकुछ लिख रही हैं ...आप ने वाइस ओवर में ये कविता पढी है ...इसका मतलब आप फिल्म या इलेक्ट्रानिक मीडिया से भी जुडी हैं ...कमल की बात है की इतनी ढेर सारी प्रतिभा के होते huye भी आप खुद को lekhika नहीं मान रही हैं ..मैं इतनी देर से नेट पर baithe rahne के bad भी निर्णय नहीं ले पा रहा की आप को क्या maanoon ?
Hemant - March 25, 2009 10:56 AM
- creativekona said...
-
शमा जी ,
आपका कमेन्ट और कविता दोनों पढी ...और निर्णय नहीं ले पा रहा की आपको किस रूप में संबोधित किया जाया .आप ने इतनी अच्छी कविता लिखी ...इतने सुन्दर भावों के साथ ...और खुद को कवि भी नहीं स्वीकार कर रही हैं ...
बात सिर्फ कविता की ही होती तब भी ठीक था ...आप लेख ,संस्मरण ,ललित निबंध सबकुछ लिख रही हैं ...आप ने वाइस ओवर में ये कविता पढी है ...इसका मतलब आप फिल्म या इलेक्ट्रानिक मीडिया से भी जुडी हैं ...कमल की बात है की इतनी ढेर सारी प्रतिभा के होते huye भी आप खुद को lekhika नहीं मान रही हैं ..मैं इतनी देर से नेट पर baithe rahne के bad भी निर्णय नहीं ले पा रहा की आप को क्या maanoon ?
Hemant - March 25, 2009 10:56 AM
- 'sammu' said...
-
KABHEE SOCHA KI SABHEE PED HAIN DHARTEE MAAN KE
KAL KEE AULAD TEREE USKEE BHEE AULAD HEE HAI
USKO BHEE DENA HAI USKO BHEE PYAR PANA HAI
TOO TO CHAL DEGA MAGAR USKO NIBHANA BHEE HAI
Monday, June 15, 2009
शब्दों की जंग !
उसके जवाब में ये रचना लिखी थी...!
आज ब्लॉग पे भी कई बार इन्हीं ग़लत फेहमियों का शिकार होते हुए ख़ुद को तथा अन्य bloggers को देख रही हूँ...
देखते हैं शब्दों की जंग
'connexexion'पे होती हुई,
हर रोज़, हर दम,
कभी इसका हिस्सा
बनते हैं, तो कभी,
गवाह बनते है हम!
सुना था तीर छूटे ,
ज़बान की कमान से,
ज़ख्म देता है गहरे,
ज़ियादा, मैदाने जंग से!
लेखनी तेज़ होती है,
धारकी तलवार से,
सच है, मनाते हैं,
ख़ैर मनही मनमे!
गर यहाँ हाथों में
होती असली तलवारें,
तीर छूटते कमान से,
हम नया इतिहास रचाते!
हल्दी घाटी या महाभारत,
छुप जाते किताबों में !
यातो,अपना खून बहाते,
या,हाथ खूनसे रंग लेते!
क्या दिखाई हरी ने,
लाशें रण भूमी में,
हम अपना ही "बॉक्स"
सूर्ख़ खिरामा देखते!
बेकफ़न पडी लाश
अपनी ही आँखों से
क्या खूब देखते
अर्थ का अनर्थ देखते !
जितनाभी बच लें ,
हाथ कँगन को आरसी कैसी?
रोज़, आँखों से देखते हैं!
हाथों में गर ख़ंजर होते,
टिप्पणी क्या चीज़ है,
हम ख़ुद ही 'डिलीट' होते!
'कम्युनिकेशन' से अधिक,
'मिस कम्युनिकेशन'होते हुए,
रोज़ वैसेही देखते हैं,
बंदूकें नहीं हाथों में,
वरना, अबतक बेक़ब्र पड़े होते!
( अन्यथा ना लें...३/४ साल पुरानी रचना है...महसूस किया कि, जो दुनियामे होता है, वही ,चाहे असली दुनियाँ हो या, 'नेट'की दुनियाँ, एकही प्रतिबिम्ब हर जगह होता है..!)
वो सपना याद आया....
लजाया मुखडा रक्तिम हुआ....
वही उष:काल कहलाया...
जब सूरजने उसको चूमा....
वही रंग मैंने हथेलियोंपे सजाया,
सुर्ख, खिरामा, वो बना,रंगे हिना !
जब उन्होंने घूँघट का पट खोला,
उन हाथोंने अपना चेहरा छुपाया!
जब माँग चूमी उन्होंने,
भर दिए अनगिनत सितारे,
पूरा हुआ सिंगार मेरा...
जब छुआ चेहरा मेरा....
शर्माते हुए इक किरन खिली,
लाजकी पंखुडी खुल गयी,
भरमाई परिणीता गठरी बनी...
बाहोंका हार गलेमे पाया...!
किस्मतको,उसीपे रश्क हुआ,
वो सपना था,सच कब हुआ?
बरसों बाद ख्वाबोंका लम्हा,
मुझे सताने क्यों लौट आया?
टूटे सपनेने कितना थकाया,
जितना जोड़ा, उतना बिखरा,
दिल उसे क्यों नही भूला?
जिसने मुझे इतना रुलाया?
जो कभी नही सजा,ऐसा,
रंगे हिना क्यों याद आया?
6 comments:
- परमजीत बाली said...
-
अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।
- April 20, 2009 1:19 AM
- डॉ .अनुराग said...
-
जो कभी नही सजा,ऐसा,
रंगे हिना क्यों याद आया?
दिलचस्प .....बस एक अनुरोध है कुछ स्पेलिंग ठीक कर ले व् वाक्यों के बीच अंतर दे...कविता की निरंतरता में बाधा आती है. - April 20, 2009 1:27 AM
- mark rai said...
-
जो कभी नही सजा,ऐसा,
रंगे हिना क्यों याद आया? .......bahut achchhi kavita.....
अगर तूफ़ान में जिद है ... वह रुकेगा नही तो मुझे भी रोकने का नशा चढा है ।
देख लेगे तुम्हारी जिद या मेरा नशा ... किसमे कितना ताकत है ।
तुम्हारी जिद से मेरा सितारा डूबने वाला नही । हम दमकते साए है ।
असर तो जरुर छोड़ेगे । - April 20, 2009 4:10 AM
- 'sammu' said...
-
sooraj ne poorva ko chooma .............vahee ushakal kahlaya .
adbhut kalpana shakti ke ubhre pratibimb . - April 20, 2009 11:19 PM
- SWAPN said...
-
किस्मतको,उसीपे रश्क हुआ,
वो सपना था,सच कब हुआ?
बरसों बाद ख्वाबोंका लम्हा,
मुझे सताने क्यों लौट आया?
इक टूटे सपनेने बेहद थकाया,
जितना जोड़ा, उतना बिखरा,
दिल उसे क्यों नही भूला?
जिसने मुझे इतना रुलाया?
sunder , sarahniya bhavabhivyakti, shama ji, badhai - April 21, 2009 6:51 AM
- Vijay Kumar Sappatti said...
-
shama ji deri se aane ke liye maafi chahta hoon .. kaam me vyast tha ..
aapki kavita padhi , bahut sundar hai .. prem bhaav poori tarah se ubhar kar aaye hai ..
aapne bahut acchi blending bhi ki hai ..mausam ke rango ko prem aur aatmiyata ke rango ke saath....
aapko dil se badhai ..
विजय
http://poemsofvijay.blogspot.com
Sunday, June 14, 2009
उसका सच!
Saturday, June 13, 2009
बेआबरू हुए...
निकाला उसने दिलसे,
घरभी वही रहा,
दरभी वही रहा,
बंद हुए दरवाज़े
उनके दिलके...
बेआबरू होके निकले...
पूछते हैं पता हमसे,
रहती हो किस शेहेरमे,
घर है तुम्हारा,
किस कूचे, किस गलीमे,
क्या बताएँ उनसे,
के ये ठिकाने नही हमारे?
रहे हैं बेआबरू होके...
जो छत है सिरपे,
कहते हैं,कि ये ,
दरो दीवारें, सबपे,
लिखे हैं नाम उन्ही के,
इक कोनाभी नही हमारा,
हैं, ग़रीब, आश्रित उन्हीके...
बेआबरू होके निकले हैं...
11 comments:
- SWAPN said...
-
BAHUT KHOOB.
- May 2, 2009 9:50 AM
- डा.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...
- This post has been removed by a blog administrator.
- May 2, 2009 10:18 AM
- Kanishka Kashyap said...
-
Shama jee , achhi abhivyakti hai..
ap bahut hin sahaj tarike se gahrai me utar jatin hai,, main to bhai kayal ho gaya apki lekhni ka..
agar koi apki pasandida rachna hai to use mujhe dene ka kast karein.. apni ek laghu patrika hai, usme prakashit karne mein khusi hogi..
thanks and rehards - May 2, 2009 10:28 AM
- 'sammu' said...
-
aabroo kaisee beaabroo kaisee ! ye sab chaltaoo mohavren hain .apnee zindgee jeene ka dam ho to duniya kee paribhashaon kee gulamee choden !
- May 2, 2009 10:30 PM
- Pradeep Kumar said...
-
kripayaa proof ki galti durust karien kyonki ye is khoobsoorat kavita ko beaabroo kar rahi hain.
- May 3, 2009 8:06 PM
- BrijmohanShrivastava said...
-
बहुत बे आबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले की तर्ज पर पहला पद
वो हमसे पूछते हैं के ग़ालिब कौन है /आप ही कहिये कि हम बतलाएं क्या /की तर्ज पर दूसरा पद
जो छत सर पर है दरो दीवार सब पर उन्ही का नाम है अपना कुछ नहीं -सही है
नए मकान की बुनियाद मैंने डाली है
उसी जमीं पे ,जो नीलम होने वाली है /
दयनीय अवस्था का अच्छा चित्रण किया है आपने
{{ सिला मिल गया में तो मेरा इतना सा निवेदन था की ""पागल करार गया ""का अर्थ यदि ये है कि हमें पागल घोषित कर गया ,या पागल बता गया तब तो कोई बात नहीं क्योंकि आम बोल चाल की भाषा में 'पागल करार कर गया ,या ऐसा करार किया आदि कहा जाता है तो मैंने सोचा करार कर गया होना चाहिए /असल में मामूली ही उर्दू जनता हूँ ,बस काम चलाऊ}} - May 4, 2009 6:18 AM
- Pradeep Kumar said...
-
बहुत बेआबरू हुए ,
निकाला उसने दिल से,
घर भी वही रहा ,
दर भी वही रहा ,
पूछते हैं पता हमसे ,
रहती हो किस शहर में ,
mujhe to yahee sahee lagtaa hai .
aur haan , aapki ek hi tippanee main bahut dam hai. dhanyavaad !! - May 4, 2009 7:19 AM
- BrijmohanShrivastava said...
-
टिप्पणी पढी ,और बातें बाद में पहली बात ये कि "म " कभी कोमल नहीं होता ,रे ,ग ,ध ,नि कोमल होते हैं म तीब्र होता है
- May 4, 2009 7:24 AM
- BrijmohanShrivastava said...
-
[[एक गलतफ़हमी हो गई /असल में मै ंने चार पॉँच लेखकों के नाम ,चार छ : उपन्यासों के नाम ,आठ दस शेर थोड़े चुटकुले टिप्पणी देने कुछ साहित्यिक शब्द ,दो चार रागों के नाम याद कर रखे हैं और यत्र तत्र अपना पांडित्य प्रदर्शन किया क़रता हूँ ,और लोग समझते हैं कि बडा जानकार है ,उसी विद्वता प्रदर्शन के चक्कर में मैंने कुछ राग वाबत लिख दिया ./मैंने सोचा ये कि जो इतना अच्छा रचनाकार है ,तकरीवन १६ श्रेष्ठ कवितायेँ तो अकेले अप्रैल में ही लिखी गई है ,फिर कहानिया ,बागवानी ,संस्मरण ,ललित लेख और शेर भी ऐसे बजन दार की क्या अर्ज करूँ ""अब सहर होने को है ,ये शमअ बुझने को है ;जो रात में जलते है ,वे सुबह कब देखते है "" मैंने सोचा ये कि ऐसे साहित्यकार को सरगम का मामूली ज्ञान होगा तो मैंने अपने विद्वता का प्रदर्शन करना चाह और राग संबन्धी अपना पांडित्य प्रर्दशित कर दिया /हकीकत ये है कि संगीत से मेरा रिश्ता उतना ही है जैसे ""सिर्फ इतना ही रिश्ता समंदर से है दूर तक किनारे किनारे गए "}},
- May 5, 2009 12:17 AM
- Pawan Kumar said...
-
सुन्दर अभिव्यक्ति है।
- May 5, 2009 4:33 AM
- प्रसन्न वदन चतुर्वेदी said...
-
"पूछते हैं पता हमसे,
रहती हो किस शेहेरमे,
घर है तुम्हारा,
किस कूचे, किस गलीमे,
क्या बताएँ उनसे,
के ये ठिकाने नही हमारे?
रहे हैं बेआबरू होके..."
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना - एक और पुरानी रचना...नयी लिखनेका समय नही मिल पा रहा!
- May 6, 2009 12:18 AM
हद से गुजरा...
कि अब कोई दर्द हमारा न रहा...
क़तरा,क़तरा पिघलता रहा,
वो यादोंकी रहगुज़र से गुज़रा,
न दिल, ना जिस्म अपना रहा...
हदसे गुज़रा, जब भी गुज़रा...
Friday, June 12, 2009
नज़दीकियों का सच!
Wednesday, June 10, 2009
मैं नहीं हूं!
Tuesday, June 9, 2009
बरखा रानी....!
चंद रोज़ पूर्व, अपने "बागवानी" ब्लॉग पे कुछ लिखा तथा अंत में "बरखा रानी से " ये दरख्वास्त की...उसी शाम वो हाज़िर हो गयीं...माहौल धुला और क़ुदरत ने एक पन्ने का जामा पहना !
आमंत्रण है आप सभीको उस ब्लॉग पे...ये ब्लॉग, केवल मालूमात नही है, ज़िंदगी के प्रती, यादों से घिरा नज़रिया है...
एक साल पहले " बागवानी की एक शाम " ये आलेख लिखा था..इत्तेफाक़न वो पर्यावरण दिवस था..अन्य पौधों के अलावा, एक चम्पे की डाल भी लगाई थी, जिसपे पहली बार ४/५ दिन पूर्व फूल खिले !
इन दो शामों में एक दिलको कचोट ने वाला फ़र्क़ है...जिसे आप मेरे आलेख मे ही पढ़ें...जो,
http://shamasansmaran.blogspot.com
इस ब्लॉग पेभी डाल दिया...डाले बिना रहा नही गया....
http://shama-baagwaanee.blogspot.com
माहौल का सच!
Monday, June 8, 2009
जब, जब किवाड़ खडके...
लगा,वो आए, वो आए,
हम बदहवास होके,
दौडे गले लगाने
जब,जब किवाड़ खडके....
ये खेल थे हवाओंके,
ये धोके थे किवाडोंके,
कई बार खाके इन्हें,
अंतमे हम रो दिए,
जब,जब किवाड़ खडके...
मूंद्के अपनी पलकें,
भींच के कान अपने,
तकिये गले लगाए,
उन्हींपे आँसू बहाए...
जब,जब किवाड़ खडके...
सुबह पूछा पडोसीने ,
क्या हुआ, कहाँ थे?
कोई रुका था दरपे आपके,
बड़ी देर द्वार खट खटाए?
उफ़ ! ये क्या बदले लिए...
अब क्या तो खुदको कोसें?
वो आके चले गए!
हम इन्तेज़ारमे उनके,
दिल थामे,रातों, रोते रहे...
जब,जब किवाड़ खडके...
सुनते हैं, कि, वो हैं रूठे,
के अब फिर न आएँगे,
हमें पता नही उनके ठिकाने,
कैसे तो ढूँढे, कैसे पुकारें?
जब,जब किवाड़ खडके...
हवाओं ने दिए धोके....
आती हैं आजभी जो,
उनको गए, ज़माने हुए,
पर अब हम नही सोते....
हर आहट पे दौड़ते हैं !
एक और पुरानीही पोस्ट !
जल उठी" शमा....!"
पेशे खिदमत अँधेरा किया,
किया तो क्या हुआ?
मैंने खुदको जला लिया!
रौशने राहोंके ख़ातिर ,
शाम ढलते बनके शमा!
मुझे तो उजाला न मिला,
ना मिला तो क्या हुआ?
सुना, चंद राह्गीरोंको
हौसला ज़रूर मिला....
अब सेहर होनेको है ,
ये शमा बुझनेको है,
जो रातमे जलते हैं,
वो कब सेहर देखते हैं?
शमा
ये एक पुरानी पोस्ट है, जिसे दोबारा पोस्ट कर रही हूँ.....
Sunday, June 7, 2009
वतनका क्या होगा!
मज़हब से कौमें बँटी तो वतन का क्या होगा।
यूँ ही खिंचती रही दीवार ग़र दरम्यान दिल के
तो सोचो हश्र क्या कल घर के आँगन का होगा।
जिस जगह की बुनियाद बशर की लाश पर ठहरे
वो कुछ भी हो लेकिन ख़ुदा का घर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर कौ़में बनाने वालों सुन लो तुम
काम कोई दूसरा इससे ज़हाँ में बदतर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर दंगे, सियासत के हुक्म पे फितन
यूँ ही चलते रहे तो सोचो, ज़रा अमन का क्या होगा।
अहले-वतन शोलों के हाथों दामन न अपना दो
दामन रेशमी है "दीपक" फिर दामन का क्या होगा।
दीपकजी ने मेरे ब्लॉग पे टिप्पणीके रूपमे ये रचना लिखी थी...मुझे बेहद पसंद आयी...टिप्पणी में तो ये छुपी रह जाती...ब्लॉग पे शायद औरभी पाठक पढ़ सकें....
रचना निहायत सुंदर है, इसमे कोई दोराय नही हो सकती.....
Saturday, June 6, 2009
सुर और लय...
Friday, June 5, 2009
घड़ी इम्तेहानकी....
सपने उन्हीं के , की दुआएँ,
वारीन्यारी गयी उन्हीं के लिए!
गए छोड़, हालपे मुझको मेरे !
तुम मसरूफ मिलते रहो
आरामसे कहते रहो,
ऐसा करो, कभी वैसा करो,
कहो ना! क्या चाहते हो?
खुला आसमाँ मिल गया,
समय रफ्तारसे उड़ चला,
गुज़रे हुएने नही नहीं लौटना,
मुडके देखो,गौर से तुम ज़रा...
पलमे अनागत बनेगा विगत,
पकडो,तो पकडो...वर्तमान !
जो है तुम्हारा अनागत ,
बनेगा एक दिन वो विगत!
हर दिशामे दौड़ते हो!!
लम्हये फुरसत निकालो,
शामे ज़िन्दगीमे क्या चाहते हो?
गौरसे फैसला कर लो,देखो!
चाहिए धन या नाम सोचलो,
के चाहिए प्यार,सोच लो !
मिल नहीं सकते साथ दोनों,
आ रहीँ आवाजें, इन्हें भी सुनो..!
घड़ी इम्तेहानकी है,समझो,
सनम, किस कीमत पे मिलेगा,
नामो धन? कीमत लगी जो,
चुकाने चलो, वो प्यारही हो?
माँ रोए, याद कर लाडली को,
बेटी पोंछे है आँसू, याद कर अपनी माँ को,
पिस रही बीछ पाटोंके तीनो,
मक़ाम ऐसा, जहाँ तुम नही हो!
नही हो..मेरे जहाँ मे ...नही हो..
कहाँ हो, आभी जाओ, जहाँ हो..
किस दिशामे पुकारूँ, कहाँ हो..
आओ, आओ, जहाँ हो...!
वो कहाँ खो गए?
वो साथ छोड़ते गए ...
लगा, पास आएँगे ,
वो और दूर जाते रहे ..
हमसाया खुदको कहनेवाले
चुभते उजालों मे खो गए ...
शब गुज़रे या दिन बीते,
हम तनहाही रह गए...
"राही फिर अकेला है "इस ब्लॉग पे "अंजुम" को पढ़ा,तो ये लिखा गया...
Thursday, June 4, 2009
"शमा"को बुझाके..!
सफ़ेद कपडेमे लपेटे गए हैं,
लगता है, मारे गए हैं,
हमें पत्थरोंसे मारनेवालें,
हमपे फूल चढा रहे हैं....
जीते जी हमपे हँसनेवाले,
सर रख क़दमोंपे हमारे,
जारोज़ार रोये जा रहे हैं........
इस "शमा"को बुझाके,
एक और शमा जला रहे हैं....
हमारी परछाईसे डरनेवाले,
क्यों हमें लिपट रहे हैं?
बेशक, हम लाशमे,
तबदील किए जा चुके हैं......
ये क्या तमाशा है?
ऐसा क्यों कर रहे हैं??
शमा
- गर्दूं-गाफिल ने कहा…
-
शमा जी
आज आपके कविता वाले ब्लॉग पर आया
यहाँ भी आपको उतना ही दर्दमंद पाया
जो मौत देख पाते हैं
वही जिंदगी निबाहते हैं
यही है सच जीवन का
जो मर के देख पाते हैं
जिसने जी ली मौत जीते जी
वो फरिश्तों में बदल जाते हैं - June 3, 2009 1:16 PM
- गाफिल जी ने ये टिप्पणी "एक 'शमा'को बुझाके..." इस कविता पे दी थी...बोहोत ही सुंदर लगी, इसलिए अपने पाठकों के खातिर ब्लॉग पे पोस्ट कर दी...!
- मोहन वशिष्ठ said...
-
यही है सच जीवन का
जो मर के देख पाते हैं
जिसने जी ली मौत जीते जी
वो फरिश्तों में बदल जाते हैं
बहुत बहुत बहुत ही सुंदर है आभार इसे हम सब के साथ सांझा करने के लिए शमां जी - June 4, 2009 2:36 AM
- SWAPN said...
-
जो मौत देख पाते हैं
वही जिंदगी निबाहते हैं
यही है सच जीवन का
जो मर के देख पाते हैं
जिसने जी ली मौत जीते जी
वो फरिश्तों में बदल जाते हैं
ek purna anubhavi vyakti hi likh sakta hai, uprokt panktian , mujhe behad umda lagin , gafil ji ko meri or se dheron badhaai pahunchayen. - June 4, 2009 3:03 AM
- मैंने अपनी कविता दोबारा सन्दर्भ के खातिर, उनकी टिप्पणी के ऊपर पोस्ट कर दी है!
जो मौत देख पाते हैं!
- गर्दूं-गाफिल ने कहा…
-
शमा जी
आज आपके कविता वाले ब्लॉग पर आया
यहाँ भी आपको उतना ही दर्दमंद पाया
जो मौत देख पाते हैं
वही जिंदगी निबाहते हैं
यही है सच जीवन का
जो मर के देख पाते हैं
जिसने जी ली मौत जीते जी
वो फरिश्तों में बदल जाते हैं - June 3, 2009 1:16 PM
- गाफिल जी ने ये टिप्पणी "एक 'शमा'को बुझाके..." इस कविता पे दी थी...बोहोत ही सुंदर लगी, इसलिए अपने पाठकों के खातिर ब्लॉग पे पोस्ट कर दी...!
Monday, June 1, 2009
.....जीवन नही !
shama ji ghazal post kar rahaa hoon -
अगर ज़िन्दगी में कोई ग़म नहीं है ,
तो ख़ुशी ही ख़ुशी भी जीवन नहीं है.
मैं इंसान उसको भला कैसे कह दूं
किसी के लिए आँख गर नम नहीं है.
ग़म के बिना कोई जन्नत भले हो.
वो जीवन नहीं है वो जीवन नहीं है .
बेशक मोहब्बत है अहसास दिल का,
न होगा जहां कोई धड़कन नहीं है .
कहाँ तक छुपायेगा इंसान खुद को ,
जो फितरत छुपा ले वो दर्पण नहीं है .
उठो एक कोशिश तो फिर करके देखो,
न हल हो कोई ऐसी उलझन नहीं है.
जो अपनों ने मुझको दिए अपने बनकर ,
उन ज़ख्मों को भर दे वो मरहम नहीं है .
कहाँ तक ज़माने के कांटे बटोरूँ ,
जो सब को छुपा ले वो दामन नहीं है.
ग़म-औ- ख़ुशी का संगम है दुनिया ,
कोई गर न हो तो ये जीवन नहीं है.
दिल की तमन्ना बयाँ कर ही डालो,
सुनके न पिघले वो नशेमन नहीं है .
मोहब्बत है गर बयाँ भी वो होगी ,
ये दिल में छुपाने से छुपती नहीं है.
बहुत बातें मुझको करनी हैं तुमसे ,
कि एक बार मिलना काफी नहीं है .
अँधेरा बढ़ा तो फिर है हाज़िर प्रदीप .
जो रोशन न हो ऐसा गुलशन नहीं है .
तुम्हारे बिन....
तुम्हारे बिन
तुम्हारे बिन हमारा घर,
हमारा घर नहीं लगता .
ईंट पत्थर का ये खंडहर,
हमारा घर नहीं लगता .
तेरे होने से होते थे ,
हमारे रात दिन रंगीन .
तेरी खुशियों में शामिल थे ,
तेरे ग़म में थे हम ग़मगीन .
मगर अब तो हमारा ग़म ,
हमारा ग़म नहीं लगता .
तुम्हारे बिन हमारा घर ............
बिगड़ना तुम पे आते ही ,
झगड़ना तुम से आते ही .
वो बेमतलब की बातों पर ,
बिगड़ना तुम पे आते ही .
मगर अब वक़्त ये कैसा ?
हमारा क्यों नहीं लगता ?
तुम्हारे बिन हमारा घर ..........................
वही हरियाली है बाहर ,
वही हैं पेड़ और पत्ते .
वही सब घर के अन्दर हैं
वहीं हैं कपडे और लत्ते .
मगर अब अपना बिस्तर भी ,
हमारा क्यों नहीं लगता ?
तुम्हारे बिन हमारा घर ......................
हवाएं अब भी चलती हैं ,
घटाएं अब भी घिरती हैं .
ये पंछी सांझ और तड़के ,
वो नग्मे अब भी गाते हैं.
मगर माहौल ये सारा ,
हमारा क्यों नहीं लगता ?
तुम्हारे बिन .......................................
कभी हम थके मांदे से ,
सभी दिन भर के कामों से .
निबटकर दौड़े-दौड़े से ,
जब अपने घर को आते थे .
सुकूं का वो इशारा अब ,
न जाने क्यों नहीं मिलता ?
तुम्हारे बिन .........................
तुम्हारे काम में हर पल ,
कमी हम ढूंढा करते थे .
तुम्हारे साथ लड़ने के ,
बहाने ढूंढा करते थे .
बहाने हैं बहुत से अब ,
तुम्हारा संग नहीं मिलता .
तुम्हारे बिन ...........................
तुम्हारी बेवकूफी को बताना ,
सबको हंस हंस कर .
ज़रा सी बात को भी ,
बढ़ाना खुश हो होकर .
कहाँ वो गुम हुआ जाकर ?
ज़माना क्यों नहीं मिलाता ?
तुम्हारे बिन ......................
वो पहले तो ज़रा सी
बात पे तुम को रुला देना .
ज़रा सी बात पे लेकिन ,
वो तुमको फिर हंसा देना .
वो मौसम प्यार वाला ,
फिर हमारा क्यों नहीं मिलता ?
तुम्हारे बिन ..............
किसी का नाम ले लेकर ,
चिढाना अपनी जाना को .
वो अपनी हरकतों से फिर ,
लजाना अपनी जाना को .
वो ही मौसम पुराना ,
फिर हमारा क्यों नहीं मिलता ?
तुम्हारे बिन ..................................
झगड़ कर के ज़रा सी बात पे ,
वो घर के टुकड़े कर देना .
वो हिस्सा तेरा ,ये है मेरा
बस तेरा ये कह देना .
मगर ये पूरा घर भी अब ,
हमारा क्यों नहीं लगता ?
तुम्हारे बिन हमारा घर
हमारा घर नहीं लगता !
2009/6/1 pradeep kumar
एक बगीचा बनायें,
जिसमे ये नन्हीं कलियाँ खिलाएँ,
इन्हें स्नेह्से नेहलायें......
beautiful thinking
इन्हें स्नेह्से नेहलायें,
महकेगी जिससे ज़िंदगी हमारी,
महक उठेगी दुनियाँ सारी...
Sunder.