Wednesday, July 29, 2009

लुटेरे

हर बार लुट ने से पहेले सोंचा
अब लुट ने के लिए क्या है बचा?
कहीँ से खज़ाने निकलते गए !
मैं लुटाती रही ,लुटेरे लूट ते गए!
हैरान हूँ ,ये सब कैसे कब हुआ?
कहाँ थे मेरे होश जब ये हुआ?
अब कोई सुनवायी नही,
गरीबन !तेरे पास था क्या,
जो कहती है लूटा गया,
कहके ज़माना चल दिया !
मैं ठगी-सी रह गयी,
लुटेरा आगे निकल गया...

Tuesday, July 28, 2009

तूफान...आते रहे..!

कुछ अरसा हुआ
एक तूफाँ मिला,
ज़िंदगी के निशाँ
पूरी तरह मिटा गया,
जब वो थम गया,
जीवन के कयी
भेद खोल गया!
कुछ अरसा हुआ...

कल के बारेमे
आगाह कर गया !
हर तूफाँ से हर बार
खुद ही निपटना होगा
तूफाँ समझा गया!
कुछ अरसा हुआ॥

फिर तो कयी तूफाँ
लेकर निशाँ , आये गए,
सैकड़ों बरबादियाँ,
बार, बार छोड़ गए
हरबार मुझे भी,
चूर,चूर कर गए
दोस्त नही आए,
ऐसे तूफाँ आए गए...

पर हर बार फिर से
वही बात दोहरा गए,
अकेलेही चलना है तुम्हें
तूफाँ कान मे सुना गए...
लौटने का वादा निभाते रहे..
तूफाँ आते रहे...आते रहे..

Sunday, July 26, 2009

स्याह अंधेरे..

कृष्ण पक्षके के स्याह अंधेरे
बने रहनुमा हमारे,
कई राज़ डरावने,
आ गए सामने, बन नज़ारे,
बंद चश्म खोल गए,
सचके साक्षात्कार हो गए,
हम उनके शुक्रगुजार बन गए...

बेहतर हैं यही साये,
जिसमे हम हो अकेले,
ना रहें ग़लत मुगालते,
मेहेरबानी, ये करम
बड़ी शिद्दतसे वही कर गए,
चाहे अनजानेमे किए,
हम आगाह तो हो गए....

जो नही थे माँगे हमने,
दिए खुदही उन्होंने वादे,
वादा फरोशी हुई उन्हीसे,
बर्बादीके जश्न खूब मने,
ज़ोर शोरसे हमारे आंगनमे...
इल्ज़ाम सहे हमीने...
ऐसेही नसीब थे हमारे....


उफ़्फ़क पे जाके शायद, मिल जाते,
मैं अगर आसमां, और तू ज़मी होता

इस दुनियां में सब मुसाफ़िर हैं,
कोई मुस्तकिल मकीं नही होता
.


सौ बार आईना देख आया,
फ़िर भी क्यूं खुद पर यकीं नही होता.


दिल के टुकडे बहुत हुये होगें,
यूं ही कोई गमनशीं नहीं होता!

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Saturday, July 25, 2009

शकीली बुनियादें

कभी शक बेबुनियाद निकले
कभी देखी शकीली बुनियादे
ऐसी ज़मीं कहॉ ,
जो खिसकी नही पैरोतले !
कभी खिसकी दसवें कदम पे
तो कभी कदम उठाने से पहले .....

Wednesday, July 22, 2009

माँ..!

मिलेगी कोई गोद यूँ,
जहाँ सर रख लूँ?
माँ! मै थक गयी हूँ!
कहाँ सर रख दूँ?

तीनो जहाँ ना चाहूँ..
रहूँ, तो रहूँ,
बन भिकारन रहूँ...
तेरीही गोद चाहूँ...

ना छुडाना हाथ यूँ,
तुझबिन क्या करुँ?
अभी एक क़दम भी
चल ना पायी हूँ !

दर बदर भटकी है तू,
मै खूब जानती हूँ,
तेरी भी खोयी राहेँ,
पर मेरी तो रहनुमा तू!

( 'माँ, प्यारी माँ!' , इस संस्मरण पर मालिका के से..)

Monday, July 20, 2009

कट्घरेमे ईमान खड़ा...!

बोहोत सच बोल गयी,
बड़ी ना समझी की,
बस अब और नही,
अब झूठ बोलूँगी,
समझ आए वही,
सोचती हूँ ऐसाही!!
कट्घरेमे खडा किया,
सवालोंके घेरेमे, मेरे अपनों,
तुमने ईमान कर दिया !
तुम्हें क्या मिल गया ??
इल्तिजा है, रेहेम करो,
मेरी तफतीश करना,
खुदाके लिए, बंद करो!
भरे चौराहेपे मुझे,
शर्मसार तो ना करो!!
शर्मसार तो ना करो!

आज सरेआम गुनाह
सारे, कुबूल करती हूँ,
की या जो नही की
खुदको ख़तावार कहती हूँ,
हर ख़ता पे अपनीही,
मुहर लगा रही हूँ!!
इक़बालिया बयाँ देती हूँ,
सुनो, अये गवाहों, सुनो,
ख़ूब गौरसे सुनो !
जब बुलावा आए,
भरी अदालातमे, तुम्हें,
तुम बिना पलक झपके,
गवाही देना, ख़िलाफ़ मेरे!
गवाही देना, ख़िलाफ़ मेरे!

बाइज्ज़त बरी होनेवालों!
ज़िन्दगीका जश्न मनाओ,
तुम्हारे दामनमे हो,
ढेर सारी ख़ुशी वो,
जिसकी तुम्हें तमन्ना हो,
तुम्हारी हर तमन्ना पूरी हो,
तहे दिलसे दुआ देती हूँ,
जबतक साँस मे साँस है,
मेरी आखरी साँस तक,
मेरी दुआ क़ुबूल हो,
सिर्फ़ यही दुआ देती हूँ...!!
सिर्फ़ यही दुआ दे सकती हूँ!!
शमा

Saturday, July 18, 2009

मन का सच!


खता मेरी नहीं के सच मै ने जाना,
कुफ़्र मेरा तो ये बेबाक ज़ुबानी है।

मैं, तू, हों या सिकन्दरे आलम,
जहाँ में हर शह आनी जानी है।

ना रख मरहम,मेरे ज़ख्मों पे यूं बेदर्दी से,
तमाम इन में मेरे शौक की निशानी है।

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Friday, July 17, 2009

दिया और बाती...!

रिश्ता था हमदोनोका ऐसा अभिन्न न्यारा
घुलमिल आपसमे,जैसा दिया और बातीका!
झिलमिलाये संग,संग,जले तोभी संग रहा,
पकड़ हाथ किया मुक़ाबला तूफानोंका !
बना रहा वो रिश्ता प्यारा ,न्यारा...

वक़्त ऐसाभी आया,साथ खुशीके दर्दभी लाया,
दियेसे बाती दूर कर गया,दिया रो,रो दिया,
बन साया,उसने दूरतलक आँचल फैलाया,
धर दी बातीपे अपनी शीतल छाया,कर दुआ,
रहे लौ सलामत सदा,दियेने जीवन वारा!!

जीवनने फिर एक अजब रंग दिखलाया,
आँखोंमे अपनों की, धूल फेंक गया,
बातीने तब सब न्योछावर कर अपना,
दिएको बुझने न दिया, यूँ निभाया रिश्ता,
बातीने दियेसे अपना,अभिन्न न्यारा प्यारा,


तब उठी आँधी ऐसी,रिश्ताही भरमाया
तेज़ चली हवा तूफानी,कभी न सोचा था,
गज़ब ऐसा ढा गया, बना दुश्मन ज़माना,
इन्तेक़ाम की अग्नी में,कौन कहाँ पोहोंचा!
स्नेहिल बाती बन उठी भयंकर ज्वाला!

दिएको दूर कर दिया,एक ऐसा वार कर दिया,
फानूस बने हाथोंको दियेके, पलमे जला दिया!
कैसा बंधन था,ये क्या हुआ, हाय,रिश्ता नज़राया!
ज़ालिम किस्मत ने घाव लगाया,दोनोको जुदा कर दिया,
ममताने उसे बचाना चाहा, आँचल में छुपाना चाहा!!

बाती धधगती आग थी, आँचल ख़ाक हो गया,
स्वीकार नही लाडली को कोई आशीष,कोई दुआ,
दिया, दर्दमे कराह जलके ख़ाक हुआ,भस्म हुआ,
उस निर्दयी आँधीने एक माँ का बली चढाया,
बलशाली रिश्तेका नाज़ ख़त्म हुआ, वो टूट गया...

रिश्ता तेरा मेरा ऐसा लडखडाया, टूटा,
लिए आस, रुकी है माया, कभी जुडेगा,
अन्तिम साँसोसे पहले, साथ हों , बाती दिया,
और ज़ियादा क्या माँगे, वो दिया?
बने एकबार फिर न्यारा,रिश्ता,तेरा मेरा?

कुछ ऐसा ही रिश्ता रहा मेरा और बेटी का...! कभी मै बेटी बनी उसकी,वो बनी माँ....

'संस्मरणों' में इसे लिखा है...

Thursday, July 16, 2009

सिला मिल गया....

बेपनाह मुहोब्बतका सिला मिल गया,
जिन पनाहोंमे दिल था,
वही बेदिल,बे पनाह कर गया...
मेरीही जागीरसे, बेदखल कर गया...!
मिल गया, मुझे सिला मिल गया....

दुआओं समेत, सब कुछ ले गया,
हमें पागल करार कर गया,
दुनियादार था, रस्म निभा गया,
ज़िंदगी देनेवाला ख़ुद मार गया,
मिल गया, मुझे सिला मिल गया...

तुम हो सबसे जुदा, कहनेवाला,
हमें सबसे जुदा कर गया,
मै खतावार हूँ तुम्हारा,
कहनेवाला, खुदको बरी कर गया,
मिल गया मुझे सिला मिल गया...

ता क़यामत इंतज़ार करूँगा,
कहके, चंद पलमे चला गया,
ना मिली हमारी बाहें,तो क्या,
वो औरोंकी बाहोंमे चला गया..
मिल गया ,मुझे सिला मिल गया...

मौत मारती तो बेहतर होता,
हमें मरघट तो मिला होता,
उजडे ख्वाब मेरे, उजड़ी बस्तियाँ,
वो नयी दुनियाँ बसाने चल दिया...
मिल गया, मुझे सिला मिल गया....

कैद्से छुडाने वो आया था,
मेरे परतक काटके निकल गया,
औरभी दीवारें ऊँची कर गया...
वो मेरा प्यार था, या सपना था,
दे गया, मुझे सिला दे गया...

मुश्किलोंमे साथ देनेका वादा ,
सिर्फ़ वादाही रह गया,
आसाँ राहोंकी तलाशमे निकल गया...
ज़िंदगी और पेचीदा कर गया...
दे गया, मुझे सिला दे गया...

Tuesday, July 14, 2009

पहलेसे उजाले...

छोड़ दिया देखना कबसे
अपना आईना हमने!
बड़ा बेदर्द हो गया है,
पलट के पूछता है ,
कौन हो,हो कौन तुम?
पहचाना नही तुम्हे!
जो खो चुकी हूँ मैं
वही ढूँढता है मुझमे !
कहाँसे लाऊँ पहलेसे उजाले
बुझे हुए चेहरेपे अपने?
आया था कोई चाँद बनके
चाँदनी फैली थी मनमे
जब गया तो घरसे मेरे
ले गया सूरज साथ अपने!

(ये एक पुरानी रचना है...)

Monday, July 13, 2009

खिलने वाली थी...

खिलनेवाली थी, नाज़ुक सी
डालीपे नन्हीसी कली...!
सोंचा डालीने,ये कल होगी
अधखिली,परसों फूल बनेगी..!
जब इसपे शबनम गिरेगी,
किरण मे सुनहरी सुबह की
ये कितनी प्यारी लगेगी!
नज़र लगी चमन के माली की,
सुबह से पहले चुन ली गयी..
खोके कोमल कलीको अपनी
सूख गयी वो हरी डाली....

Saturday, July 11, 2009

जाने क्या?

तमाम शहर रौशन हो, ये नही होगा,
शमा जले अन्धेरे में ये उसकी मज़बूरी है.

दर्द मज़लूम का न गर परेशान करे,
ज़िन्दगी इंसान की अधूरी है.

ज़रूरी काम छोड के इबादत की?
समझ लो खुदा से अभी दूरी है.

सच कडवा लगे तो मैं क्या करूं,
इसको कहना बडा ज़रूरी है.

Friday, July 10, 2009

जले या बुझे...

अरे पागल, क्यों पूछता है,
कि, तेरा वजूद क्या है?
कह दूँ,कि जो हाल है,
मेरा, वही तेराभी हश्र है !

के नही हूँ जिस्म मै,
के हूँ एक रूह मै ,
जो उड़ जाए है,
ये काया छोड़ जाए है..!

क्यों पूरबा देखे है?
ये सांझकी बेला है,
जो नज़र आए मुझे?
वो नज़रंदाज़ करे है !

देख,आईना देख ले,
कल था, क्या आज है?
रंग रूप बदलेंगे,
रातमे सूरज दिखेंगे?

ना तेरा जिस्म नित्य है,
ना नित्य कोई यौवन है,
छलावों से खुदको छले है?
मृग जलके पीछे दौडे है?

बोए हैं चंद फूलोंके
साथ खार कई तूने,
फूल तो मसले जायेंगे,
खार सूखकेभी चुभेंगे!!

क़ुदरतके नियम निराले,
गर किया है तूने,
वृक्ष कोई धराशायी,
रेगिस्ताँ होंगे नसीब तेरे!!

आगे बढ्नेसे पहले,
देख बार इक,अतीतमे,
गुलिस्ताँ होंगे आगे तेरे,
काँटे ही काँटे पैरों तले !!

मूँदके अपनी आँखें,
झाँक तेरे अंतरमे,
अमृत कुंड छलके है,
फिरभी तू प्यासा है !

तेरे पीछे जो खड़े हैं,
वो भूले हुए वादे तेरे,
लगा छोड़ आया उन्हें,
वो हरदम तेरे साथ चले !

छोडेंगे तुझे ये छलावे,
मंज़िले जानिब चलेगा अकेले,
जिन्हें ठुकराया तूने,
रातोंके साये साथ हो लें...

समाप्त।

"तहे दिलसे दुआ करती है इक "शमा"
हर वक़्त रौशन रहे तेरा जहाँ!!
वो बुझे तो बुझे,ऐसे हों नसीब तेरे,
के काफिले रौशनी हो जाए साथ तेरे..."

Thursday, July 9, 2009

वो राह,वो सहेली...

पीछे छूट चली,
वो राह वो सहेली,
गुफ्तगू, वो ठिठोली,
पीछे छूट चली...

ना जाने कब मिली,
रात इक लम्बी अंधेरी,
रिश्तों की भीड़ उमड़ी,
पीछे छूट चली...

धुआँ पहेन चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
होके बेहद अकेली,
पीछे छूट चली...

ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...

Tuesday, July 7, 2009

क्यों इल्ज़ामे बेवफाई ?

अपनी उम्मीदें दफनाई
नींव तुम्हारे घरकी बनायी......

अपने लिए सपने कोई ,
कभी देखे नहीं ....

गर पलक झपकी भी,
पलकों ने झालर बुनी

ख्वाब आँखों के थे तुम्हारी......
मेरी तमन्ना कहाँ थी ?

गर पूरी नही हुई,
उसमे मेरी खता कहाँ थी?

क्यों इल्ज़ामे बेवफाई?
जब हर वफ़ा निभायी!...

मैं तो नींद गहरी ,
सोयी कभी? कभी नही!

दूर रहे हर आँधी,
ऐसी की निगेहबानी!

चाँदनी मन जलाये...

"दूरसे आसमाँ कितना मनोहारी लगे है ,
फिर भी , सर पे छत हो , क्यों लगे है ?

धूप के बिना जीवन नही ,पैर चाहे जलते हैं ,
चाँदनी मन जलाती है ,वही प्यारी क्यों लगे है?

Monday, July 6, 2009

कौन डगर,ये कैसा सफर?

डरे, कुम्हलाये मनको क्या पता था?
ये डगर क्या , कौनसा रास्ता था?
वो किस मंजिल की ओर चली थी?
कौन शहर ,किस दिशा सफ़र चला ?
उसके पीका घर था, या बंदीशाला?
मनको क्या पता था?

किसे था, इंतज़ार उसका ?
आगे सपने थे या,
इक संसार पीड़ा का?
शर्मीली दुल्हन, पलकोंमे डर था,
आँसू छलकाना,या,
खुलके हँसना ,दोनों मना था !
सफर आगे, आगे चला था,
मनको क्या पता था?

मन बचपन में रुका पड़ा था,
वो नन्हीं, नन्हीं पग डंडियाँ,
उसे थामने दौड़ते दादा,
भूल पाना,क्या मुमकिन था..?
वो बाबुलकी सखियाँ, वो गलियाँ?
मनको कहाँ पता था?

मन पीछे, पीछे भाग रहा था,
अनजान डर जिसे घेर रहा था...
भयभीत मन, भरमा रहा था,
पीका नगर अब आ रहा था,
पीका नगर था , आनेवाला....
मनको कहाँ पता था??

एक चकित भरमाई दुल्हन की मनोदशा...जैसे नौका ने एक किनारा तो छोड़ दिया था...पर किस दिशा वो बह चली थी, कहाँ उसका दूसरा साहिल था, उसे ख़बर कहाँ?...?

Friday, July 3, 2009

दूर रेह्केभी ......

दूर रेह्केभी क्यों
इतने पास रहते हैं वो?
हम उनके कोई नही,
क्यों हमारे सबकुछ,
लगते रहेते हैं वो?
सर आँखोंपे चढाया,
अब क्यों अनजान,
हमसे बनतें हैं वो?

वो अदा थी या,
है ये अलग अंदाज़?
क्यों हमारी हर अदा,
नज़रंदाज़ करते हैं वो?
घर छोडा,शेहेर छोडा,
बेघर हुए, परदेस गए,
और क्या, क्या, करें,
वोही कहें,इतना क्यों,
पीछा करतें हैं वो?

खुली आँखोंसे नज़र
कभी आते नही वो!
मूंदतेही अपनी पलकें,
सामने आते हैं वो!
इस कदर क्यों सताते हैं वो?
कभी दिनमे ख्वाब दिखलाये,
अब क्योंकर कैसे,
नींदें भी हराम करते हैं वो?

जब हरेक शब हमारी ,
आँखोंमे गुज़रती हो,
वोही बताएँ हिकमत हमसे,
क्योंकर सपनों में आयेंगे वो?
सुना है, अपने ख्वाबों में,
हर शब मुस्कुरातें हैं वो,
कौन है,हमें बताओ तो,
उनके ख्वाबोंमे आती जो?
दूर रेह्केभी क्यों,
हरवक्त पास रहेते हैं वो?
शमा

Thursday, July 2, 2009

१०० वीं पोस्ट "कविता"पर!

शमा जी ,
आप के Blogg की 100 वीं पोस्ट है, मैं नही जानता के आप को पसन्द आयेगा कि नहीं. मैं ये liberty ले रहा हूं आप ने "कविता" पर मुझे coauther का right दिया है, तो इतनी liberty मैं ले हई सकता हूं. उम्मीद है कलाम आपको और आप के Blog के पाठकों को पसंद आयेगा.

हाथ में इबारतें,लकीरें थीं,
सावांरीं मेहनत से तो वो तकदीरें थी।
जानिबे मंज़िल-ए-झूंठ ,मुझे भी जाना था,
पाँव में सच की मगर जंज़ीरें थीं।
मैं तो समझा था फूल ,बरसेंगे,
उनके हाथों में मगर शमशीरें थीं।

खुदा समझ के रहेज़दे में ताउम्र जिनके,
गौर से देखा तो , वो झूंठ की ताबीरे॑ थीं।
पिरोया दर्द के धागे से तमाम लफ़्ज़ों को,
मेरी ग़ज़लें मेरे ज़ख़्मों की तहरीरें थीं।

पीछेसे वार मंज़ूर नही...

अँधेरों इसके पास आना नही,
बुझनेपे होगी,"शमा"बुझी नही,
बुलंद एकबार ज़रूर होगी,
मत आना चपेट में इसकी,
के ये अभी बुझी नही!

दिखे है, जो टिमटिमाती,
कब ज्वाला बनेगी,करेगी,
बेचिराख,इसे ख़ुद ख़बर नही!
उठेगी धधक , बुझते हुएभी,
इसे पीछेसे वार मंज़ूर नही!

कोई इसका फानूस नही,
तेज़ हैं हवाएँ, उठी आँधी,
बताओ,है शमा कोई ऐसी,
जो आँधीयों से लड़ी नही?
ऐसी,जो आजतक बुझी नही?

सैंकडों जली,सैंकडों,बुझी!
हुई बदनाम ,गुमनाम कभी,
है शामिल क़ाफ़िले रौशनी ,
जिन्हें,सदियों सजाती रही!
एक बुझी,तो सौ जली..!

4 comments:

मुकेश कुमार तिवारी said...

शमा जी,

बहुत ही अच्छी पंक्तियाँ है :-

सैंकडों जली,सैंकडों,बुझी!
हुई बदनाम ,गुमनाम कभी,
है शामिल क़ाफ़िले रौशनी ,
जिन्हें,सदियों सजाती रही!
एक बुझी,तो सौ जली..!


सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

gargi gupta said...

उठेगी धधक , बुझते हुएभी,
इसे पीछेसे वार मंज़ूर नही!

क्या बात है सच को बहुत ही खुबसूरत अंदाज से ब्यक्त किया है आप ने

मुकेश कुमार तिवारी said...

शमा जी,

आपने बहुत ही जर्रानवाजी की इस ख़ाकसार की, शुक्रिया।

वैसे, मैं तो हमेशा यही चाहता रहा कि मैं जो लिखूं वह पढा जाये और अनुभव किया जाये। आपकी टिप्पणी मेरी सोच को सार्थकता प्रदान करती लगी।

आपका "कवितायन" पर स्वागत है और मुझे भी आपकी सार्थक टिप्पणियों का इंतजार रहेगा। शमा की कवितायें बुलंदियों को हासिल करें यही दुआयें है।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

'sammu' said...

ग़ालिब ने कहा
शम्मा हर हाल में जलती है सहर होने तक ......

होने से पहले सहर
मिटने से पहले अय शमा
खोल तो राज़ कोई
रात के अफसानो का .

तू बुझे जब भी बुझे
बुझने से पहले लेकिन
कुछ फ़साने तो सुना
जल चुके परवानों का

उनको मालूम भी था
देख के रोशन तुझको
रोशनी ही है पता
मिट चुके अरमानों का

वो ही फानूस थे
मिट कर तुझे बुझने ना दिया
शान रक्खी थी धरम
रक्खा था दीवानों का

Wednesday, July 1, 2009

जादू का सच!

क्या कहा?, तुम जादू दिखाओगे!
जाने दो फ़िर हमें बेवकूफ़ बनाओगे.

वख्त आने पे बरसात होती है,
ये बात तुम प्यासों को बताओगे.

मेरे ज़ख्मों को बे मरहम ही रहने दो,
ये खुले , तो तुम बिखर जाओगे.

बम धमाके में,वो ही क्यों मरा?
उसकी मां को ,ये कैसे समझाओगे.

मैने माना पढा दोगे, सब लोगों को
जो काबिल भूलें है,सब,उन्हें क्या बताओगे.