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Wednesday, November 30, 2011

दुल्हनिया...!


ना,ना,न छूना घूंघटा,
सहमी सिमटी है दुल्हनिया,
अभी छलके हैं इस के नैना,
यादों में है बाबुल अपना!

आँखों से कजरा बह गया,
बालों में गजरा मुरझाया,
हैं हिनाभरी हथेलियाँ,
याद आ रही हैं सहेलियाँ...

दादी औ माँ में उलझा है ज़ेहन,
उसमे बसा है नैहरका आँगन,
धूप में बरसती सावनी फुहार,
फूल बरसाता हारसिंगार...

गीली मिट्टी पे मोलश्री के फूल,
नीम के तिनकों में पिरोये हार,
मेलों के तोहफे,बहनका दुलार,
अभी यही है,इसका सिंगार!

Monday, February 8, 2010

परिंदे.....

उड़ गए परिंदे, है ख़ाली घोंसला,
जब भरती चोचों में दाना,
याद करे आज वो दिन मादा,
देखे ,क्षितिज को, जो दुभागा गया...

Wednesday, January 20, 2010

माँ!

मिलेगी कोई गोद यूँ,
जहाँ सर रख लूँ?
माँ! मै थक गयी हूँ!
कहाँ सर रख दूँ?

तीनो जहाँ ना चाहूँ..
रहूँ, तो रहूँ,
बन भिकारन रहूँ...
तेरीही गोद चाहूँ...

ना छुडाना हाथ यूँ,
तुझबिन क्या करुँ?
अभी एक क़दम भी
चल ना पायी हूँ !

दर बदर भटकी है तू,
मै खूब जानती हूँ,
तेरी भी खोयी राहेँ,
पर मेरी तो रहनुमा तू!
(maa pe likhe aalekh me yah rachana likhi thee)

Saturday, September 5, 2009

इस तरह आ..

सुन मौत!तू इसतरह आ
हवाका झोंका बन,धीरेसे आ!
ज़र्रे की तरह मुझे उठा ले जा
कोई आवाज़ हो ना
पत्ता कोई बजे ना
चट्टानें लाँघ के दूर लेजा !
मेरे प्रीतम की तरह आ,
मुझे बाहों में उठा ले,
पलकों को चूम ले,
माँग में मोती भर,
मेरी माँग चूम ले!
किसीको पता लगे ना
डाली कोई हिले ना
आ,मेरे पास आ,
एक सखी बन के आ,
थाम ले मुझे
सीनेसे लगा ले,
गोदीमे सुला दे,
थक गयी हूँ बोहोत,
मीठी सी लोरी,
गुनगुना के सुना दे!
मेरी माँ बन के आ ,
आँचल मे छुपा ले !
आ,तू आ, गलेसे लगा ले...

Wednesday, July 22, 2009

माँ..!

मिलेगी कोई गोद यूँ,
जहाँ सर रख लूँ?
माँ! मै थक गयी हूँ!
कहाँ सर रख दूँ?

तीनो जहाँ ना चाहूँ..
रहूँ, तो रहूँ,
बन भिकारन रहूँ...
तेरीही गोद चाहूँ...

ना छुडाना हाथ यूँ,
तुझबिन क्या करुँ?
अभी एक क़दम भी
चल ना पायी हूँ !

दर बदर भटकी है तू,
मै खूब जानती हूँ,
तेरी भी खोयी राहेँ,
पर मेरी तो रहनुमा तू!

( 'माँ, प्यारी माँ!' , इस संस्मरण पर मालिका के से..)

Friday, July 17, 2009

दिया और बाती...!

रिश्ता था हमदोनोका ऐसा अभिन्न न्यारा
घुलमिल आपसमे,जैसा दिया और बातीका!
झिलमिलाये संग,संग,जले तोभी संग रहा,
पकड़ हाथ किया मुक़ाबला तूफानोंका !
बना रहा वो रिश्ता प्यारा ,न्यारा...

वक़्त ऐसाभी आया,साथ खुशीके दर्दभी लाया,
दियेसे बाती दूर कर गया,दिया रो,रो दिया,
बन साया,उसने दूरतलक आँचल फैलाया,
धर दी बातीपे अपनी शीतल छाया,कर दुआ,
रहे लौ सलामत सदा,दियेने जीवन वारा!!

जीवनने फिर एक अजब रंग दिखलाया,
आँखोंमे अपनों की, धूल फेंक गया,
बातीने तब सब न्योछावर कर अपना,
दिएको बुझने न दिया, यूँ निभाया रिश्ता,
बातीने दियेसे अपना,अभिन्न न्यारा प्यारा,


तब उठी आँधी ऐसी,रिश्ताही भरमाया
तेज़ चली हवा तूफानी,कभी न सोचा था,
गज़ब ऐसा ढा गया, बना दुश्मन ज़माना,
इन्तेक़ाम की अग्नी में,कौन कहाँ पोहोंचा!
स्नेहिल बाती बन उठी भयंकर ज्वाला!

दिएको दूर कर दिया,एक ऐसा वार कर दिया,
फानूस बने हाथोंको दियेके, पलमे जला दिया!
कैसा बंधन था,ये क्या हुआ, हाय,रिश्ता नज़राया!
ज़ालिम किस्मत ने घाव लगाया,दोनोको जुदा कर दिया,
ममताने उसे बचाना चाहा, आँचल में छुपाना चाहा!!

बाती धधगती आग थी, आँचल ख़ाक हो गया,
स्वीकार नही लाडली को कोई आशीष,कोई दुआ,
दिया, दर्दमे कराह जलके ख़ाक हुआ,भस्म हुआ,
उस निर्दयी आँधीने एक माँ का बली चढाया,
बलशाली रिश्तेका नाज़ ख़त्म हुआ, वो टूट गया...

रिश्ता तेरा मेरा ऐसा लडखडाया, टूटा,
लिए आस, रुकी है माया, कभी जुडेगा,
अन्तिम साँसोसे पहले, साथ हों , बाती दिया,
और ज़ियादा क्या माँगे, वो दिया?
बने एकबार फिर न्यारा,रिश्ता,तेरा मेरा?

कुछ ऐसा ही रिश्ता रहा मेरा और बेटी का...! कभी मै बेटी बनी उसकी,वो बनी माँ....

'संस्मरणों' में इसे लिखा है...

Saturday, June 6, 2009

सुर और लय...

"घड़ी इम्तेहानकी...." इस रचना में, सुर और लय के मुताबिक, चंद बदलाव किए हैं...टिप्पणी से पता चलेगा,( जो पढ़ चुके हैं,) कि, क्या ये बेहतर है ?आखरी ध्रुपद इसमे और लिखा है...

Friday, June 5, 2009

घड़ी इम्तेहानकी....

कभी झपकी पलक, तो देखे,
सपने उन्हीं के , की दुआएँ,
वारीन्यारी गयी उन्हीं के लिए!
गए छोड़, हालपे मुझको मेरे !

तुम मसरूफ मिलते रहो
आरामसे कहते रहो,
ऐसा करो, कभी वैसा करो,
कहो ना! क्या चाहते हो?

खुला आसमाँ मिल गया,
समय रफ्तारसे उड़ चला,
गुज़रे हुएने नही नहीं लौटना,
मुडके देखो,गौर से तुम ज़रा...

पलमे अनागत बनेगा विगत,
पकडो,तो पकडो...वर्तमान !
जो है तुम्हारा अनागत ,
बनेगा एक दिन वो विगत!

हर दिशामे दौड़ते हो!!
लम्हये फुरसत निकालो,
शामे ज़िन्दगीमे क्या चाहते हो?
गौरसे फैसला कर लो,देखो!

चाहिए धन या नाम सोचलो,
के चाहिए प्यार,सोच लो !
मिल नहीं सकते साथ दोनों,
आ रहीँ आवाजें, इन्हें भी सुनो..!

घड़ी इम्तेहानकी है,समझो,
सनम, किस कीमत पे मिलेगा,
नामो धन? कीमत लगी जो,
चुकाने चलो, वो प्यारही हो?

माँ रोए, याद कर लाडली को,
बेटी पोंछे है आँसू, याद कर अपनी माँ को,
पिस रही बीछ पाटोंके तीनो,
मक़ाम ऐसा, जहाँ तुम नही हो!

नही हो..मेरे जहाँ मे ...नही हो..
कहाँ हो, आभी जाओ, जहाँ हो..
किस दिशामे पुकारूँ, कहाँ हो..
आओ, आओ, जहाँ हो...!

Friday, May 1, 2009

माँ तेरा आँचल....

गर्दूं-गाफिल said... माँ तेरा आँचल कहाँ खो गया
तेरा लाडला अब तनहा हो गया

जीवन की दोपहरी में जलती रही
मेरे जीवन को उजला करती रही
उम्र की साँझ में जब अकेली हुई
थक कर भी मुझ पर निछावर रही
जिसकी गोदी में शीतल होता था मै
मेरी ममता का सागर कहाँ सो गया

नीड़ ममता का छोडा ,,छौना उड़ा
कौर जिसको खिलाये ,,सलोना मुड़ा
फिर भी देवालयों में ..बिसूरती रही
प्रार्थनाएं मेरे सुख की ही करती रही
जो लेकर बलैयां निखर जाता ..था
वो आरत का दीपक कहाँ खो गया

मेरी" नैहर" इस कहानीपे टिप्पणीके रूपमे "गाफिल" जीने ये रचना लिखी...बेहद शुक्रगुजार हूँ...पढ़ते, पढ़ते मेरी आँखें नम हो गयीं...बोहोत ही उमदा अल्फाज़ हैं....गाफील जी आप बेहतरीन लिखते हैं...

Saturday, March 28, 2009

एक हिन्दुस्तानीकी ललकार, फिर एकबार !

Sunday, December 7, 2008

एक हिन्दुस्तानिकी ललकार, फिर एक बार !

कुछ अरसा पहले लिखी गई कवितायें, यहाँ पेश कर रही हूँ। एक ऑनलाइन चर्चामे भाग लेते हुए, जवाब के तौरपर ये लिख दी गयीं थीं। इनमे न कोई संपादन है न, न इन्हें पहले किसी कापी मे लिखा गया था...कापीमे लिखा, लेकिन पोस्ट कर देनेके बाद।

एक श्रृंखला के तौरपे सादर हुई थीं, जिस क्रम मे उत्तर दिए थे, उसी क्रम मे यहाँ इन्हें पेश कर रही हूँ। मुझे ये समयकी माँग, दरकार लग रही है।

१)किस नतीजेपे पोहोंचे?

बुतपरस्तीसे हमें गिला,
सजदेसे हमें शिकवा,
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
वोभी तय करनेमे गुज़ारे !
आख़िर किस नतीजेपे पोहोंचे?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...

फ़सादोंमे ना हिंदू मरे
ना मुसलमाँ ही मरे,
वो तो इंसान थे जो मरे!
उन्हें तो मौतने बचाया
वरना ज़िंदगी, ज़िंदगी है,
क्या हश्र कर रही है
हमारा,हम जो बच गए?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...

देखती हमारीही आँखें,
ख़ुद हमाराही तमाशा,
बनती हैं खुदही तमाशाई
हमारेही सामने ....!
खुलती नही अपनी आँखें,
हैं ये जबकि बंद होनेपे!
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
सिर्फ़ चार दिन मिले..!


२) खता किसने की?


खता किसने की?
इलज़ाम किसपे लगे?
सज़ा किसको मिली?
गडे मुर्दोंको गडाही छोडो,
लोगों, थोडा तो आगे बढो !
छोडो, शिकवोंको पीछे छोडो,
लोगों , आगे बढो, आगे बढो !

क्या मर गए सब इन्सां ?
बच गए सिर्फ़ हिंदू या मुसलमाँ ?
किसने हमें तकसीम किया?
किसने हमें गुमराह किया?
आओ, इसी वक़्त मिटाओ,
दूरियाँ और ना बढाओ !
चलो हाथ मिलाओ,
आगे बढो, लोगों , आगे बढो !

सब मिलके नयी दुनिया
फिर एकबार बसाओ !
प्यारा-सा हिन्दोस्ताँ
यारों दोबारा बनाओ !
सर मेरा हाज़िर हो ,
झेलने उट्ठे खंजरको,
वतन पे आँच क्यों हो?
बढो, लोगों आगे बढो!

हमारी अर्थीभी जब उठे,
कहनेवाले ये न कहें,
ये हिंदू बिदा ले रहा,
इधर देखो, इधर देखो
ना कहें मुसलमाँ
जा रहा, कोई इधर देखो,
ज़रा इधर देखो,
लोगों, आगे बढो, आगे बढो !

हरसूँ एकही आवाज़ हो
एकही आवाज़मे कहो,
एक इन्सां जा रहा, देखो,
गीता पढो, या न पढो,
कोई फ़र्क नही, फ़ातेहा भी ,
पढो, या ना पढो,
लोगों, आगे बढो,

वंदे मातरम की आवाज़को
इसतरहा बुलंद करो
के मुर्दाभी सुन सके,
मय्यत मे सुकूँ पा सके!
बेहराभी सुन सके,
तुम इस तरहाँ गाओ
आगे बढो, लोगों आगे बढो!

कोई रहे ना रहे,
पर ये गीत अमर रहे,
भारत सलामत रहे
भारती सलामत रहें,
मेरी साँसें लेलो,
पर दुआ करो,
मेरी दुआ क़ुबूल हो,
इसलिए दुआ करो !
तुम ऐसा कुछ करो,
लोगों आगे बढो, आगे बढो!!


३)एक ललकार माँ की !

उठाये तो सही,
मेरे घरकी तरफ़
अपनी बद नज़र कोई,
इन हाथोंमे गर
खनकते कंगन सजे,
तो ये तलवारसेभी,
तारीख़ गवाह है,
हर वक़्त वाकिफ़ रहे !

इशारा समझो इसे
या ऐलाने जंग सही,
सजा काजलभी मेरी,
इन आँखोमे , फिरभी,
याद रहे, अंगारेभी
ये जमके बरसातीं रहीं
जब, जब ज़रूरत पड़ी

आवाज़ खामोशीकी सुनायी,
तुम्हें देती जो नही,
तो फिर ललकार ही
सुनो, पर कान खोलके
इंसानियत के दुश्मनों
हदमे रहो अपनी !

चूड़ियाँ टूटी कभी,
पर मेरी कलाई नही,
सीता सावित्री हुई,
तो साथ चान्दबीबी,
झाँसीकी रानीभी बनी,
अबला मानते हो मुझे,
आती है लबपे हँसी!!
मुझसे बढ़के है सबला कोई?

लाजसे गर झुकी,
चंचल चितवन मेरी,
मत समझो मुझे,
नज़र आता नही !
मेरे आशियाँ मे रहे,
और छेद करे है,
कोई थालीमे मेरी ,
हरगिज़ बर्दाश्त नही!!

खानेमे नमक के बदले
मिला सकती हूँ विषभी!
कहना है तो कह लो,
तुम मुझे चंचल हिरनी,
भूल ना जाना, हूँ बन सकती,
दहाड़ने वाली शेरनीभी !

जिस आवाज़ने लोरी,
गा गा के सुनायी,
मैं हूँ वो माँ भी,
संतानको सताओ तो सही,
चीरके रख दूँगी,
लहुलुहान सीने कई !!
छुपके वार करते हो,
तुमसे बढ़के डरपोक
दुनियामे है दूसरा कोई?
21 टिप्पणियाँ:

श्यामल सुमन said...

सुन्दर भाव। किसी ने कहा है कि-

ये हमने माना कि जिन्दगी चार दिन की है।
मगर चार दिन की जिन्दगी भी कम नहीं होती।।

साथ ही-

ये माना कि हम चमन को गुलजार न कर सके।
कुछ खार तो कम हुए गुजरे जिधर से हम

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
December 7, 2008 7:07 AM
अखिल तिवारी said...

खता किसने की?
इलज़ाम किसपे लगे?
सज़ा किसको मिली?
गडे मुर्दोंको गडाही छोडो,
लोगों, थोडा तो आगे बढो !
छोडो, शिकवोंको पीछे छोडो,
लोगों , आगे बढो, आगे बढो !

अब इससे भी और अच्छा तरीका क्या हो सकता है आवाहन करने का....

आशा है लोग इसे केवल पढेंगे ही नही बल्कि कुछ आत्मसात भी करेंगे.. हम आपके साथ हैं...
December 7, 2008 7:08 AM
savita verma said...

रोचक
December 7, 2008 7:24 AM
विष्णु बैरागी said...

आगे बढना ही एकमात्र निदान है । सुन्‍दर भावनाएं । सुन्‍दर शब्‍दावली ।
December 7, 2008 9:05 AM
विनय said...

जागो भारत के सपूतों!
December 7, 2008 9:44 AM
परमजीत बाली said...

बढ़िया!!
December 7, 2008 9:51 AM
नीरज गोस्वामी said...

आप की ये बेहतरीन रचनाएँ किसी संपादन की मोहताज नहीं...वैसे जो दिल से लिखा जाए उसे संपादन करने की जरूरत ही महसूस नहीं होती...तीनो रचनाएँ अपने आप में पूरी हैं और कमाल की हैं...
नीरज
December 7, 2008 10:31 AM
राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर भाव
धन्यवाद
December 7, 2008 12:29 PM
NirjharNeer said...

उठाये तो सही,
मेरे घरकी तरफ़
अपनी बद नज़र कोई,
इन हाथोंमे गर
खनकते कंगन सजे,
तो ये तलवारसेभी,
तारीख़ गवाह है,
हर वक़्त वाकिफ़ रहे !

yakinan aaj vo vaqt aa gaya hai jab har insan ki soch ko ek sahi disha dene vale aap jaise chintak or lekhak ki jarurat hai.dua hai aap ke dikhae path par sab apne kadam badhaye
December 7, 2008 8:18 PM
Amit K. Sagar said...

Very nice one!
December 8, 2008 1:04 AM
डॉ .अनुराग said...

क्या कहूँ .सब कुछ आपने समेट दिया है .....गहरे अर्थ में ...
December 8, 2008 6:25 AM
Harkirat Haqeer said...

उठाये तो सही,
मेरे घरकी तरफ़
अपनी बद नज़र कोई,
इन हाथोंमे गर
खनकते कंगन सजे,
तो ये तलवारसेभी,
तारीख़ गवाह है,
हर वक़्त वाकिफ़ रहे !

कमाल कीशब्‍दावली
December 8, 2008 9:16 AM
Vijay Kumar Sappatti said...

kya baat hai , main har nazm do-teen padha , deshbhakti se paripoorna hai .

खता किसने की?
इलज़ाम किसपे लगे?
सज़ा किसको मिली?
गडे मुर्दोंको गडाही छोडो,
लोगों, थोडा तो आगे बढो !
छोडो, शिकवोंको पीछे छोडो,
लोगों , आगे बढो, आगे बढो !

aur in lines mein to jaise jaan daal diya ho aapne .

bahut badhai

vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
December 9, 2008 1:14 AM
Prithvi Pariwar said...

aap jaisa har insaan ho jaaye to duniya ki kuchh alag hi tasweer hogi...
December 9, 2008 1:35 AM
ananya said...

आदरणीया'शमा' जी ,
आपका रचना संसार निश्चित रूप से अनुपम है।
मैंने आपकी अद्यतन रचनाएँ ' एक,दोऔर तीन 'पढ़ीं।
लगा कि मैं ज़िन्दगी की सच्चाई से साक्षात्कार कर रहा हूँ और आज के युग में सत्पथ पर चलने की प्रेरणा दुर्लभ है तिस पर अंतस की गहराई से उद्भूत भाव काव्य का रूप लें क्या कहना !बधाई !
आपकी रचनाएँ काव्य प्रेमियों के लिए चिरकाल तक प्रेरणादायी बनी रहेंगी ।
मैं आपको व आपके रचना संसार को नमन करता हूँ !
आपके द्वारा प्रेषित 'वाणी वंदना 'पर प्रोत्साहन स्वरुप टिपण्णी के रूप में
शुभकामनाएँ प्राप्त हुईं जिनके लिए बेटीकोटिशः धन्यवाद!
निश्चित ही वास्तविकता प्रेरणाएं हमारा संबल होंगी।
कृपया हमारी साईट देखकर हमें अनुगृहीत करती रहें।
December 9, 2008 9:19 AM
manu said...

लाजवाब ...ये शब्द और आन लाइन ..बहुत मुश्किल कम hai
December 9, 2008 5:14 PM
VisH said...

aapka aagaj or lalkar lajabab...hai...

Aapke sath .....


Jai Ho Magalmay ho...
December 9, 2008 9:47 PM
RAJ SINH said...

AAPKE MAN AUR USME BASE HINDUSTAN KO NAMAN !
HINDUSTAN KEE HAR LALKAR PAR HAM SAB SAATH HAIN.

HINDUSTAN SAATH HAI .
HINDUSTAN KEE KASAM !
December 11, 2008 1:29 AM
प्रकाश गोविन्द said...

अत्यन्त भावपूर्ण कविता !
मन को आंदोलित करती हैं पंक्तियाँ !

मेरी हार्दिक शुभकामनाएं !
December 11, 2008 6:03 AM
सुप्रतिम बनर्जी said...

ऐसी रचना पर आदमी दाद देने से ख़ुद को रोक नहीं सकता। जितनी अच्छी रचना, उससे भी अच्छी चर्चा बिंदु।
December 11, 2008 7:26 AM
अक्षय-मन said...

shabd nahi hain talwaar se kam.....
aaj ki jhasi ki rani....talwaar nahi hai to kya hua shabd to hain wo bhi bahut tej daar wale hain bure logo ke liye......
December 12, 2008 9:39 PM

Monday, March 23, 2009

वो घर बुलाता है...

जब,जब पुरानी तस्वीरे
कुछ याँदें ताज़ा करती हैं ,
हँसते ,हँसते भी मेरी
आँखें भर आती हैं!

वो गाँव निगाहोंमे बसता है
फिर सबकुछ ओझल होता है,
घर बचपन का मुझे बुलाता है,
जिसका पिछला दरवाज़ा
खालिहानोमें खुलता था ,
हमेशा खुलाही रहता था!

वो पेड़ नीमका आँगन मे,
जिसपे झूला पड़ता था!
सपनोंमे शहज़ादी आती थी ,
माँ जो कहानी सुनाती थी!

वो घर जो अब "वो घर"नही,
अब भी ख्वाबोमे आता है
बिलकुल वैसाही दिखता है,
जैसा कि, वो अब नही!

लकड़ी का चूल्हाभी दिखता है,
दिलसे धुआँसा उठता है,
चूल्हा तो ठंडा पड़ गया
सीना धीरे धीरे सुलगता है!

बरसती बदरीको मै
बंद खिड्कीसे देखती हूँ
भीगनेसे बचती हूँ
"भिगो मत"कहेनेवाले
कोयीभी मेरे पास नही
तो भीगनेभी मज़ाभी नही...

जब दिन अँधेरे होते हैं
मै रौशन दान जलाती हूँ
अँधेरेसे कतराती हूँ
पास मेरे वो गोदी नही
जहाँ मै सिर छुपा लूँ
वो हाथभी पास नही
जो बालोंपे फिरता था
डरको दूर भगाता था...

खुशबू आती है अब भी,
जब पुराने कपड़ों मे पडी
सूखी मोलश्री मिल जाती
हर सूनीसी दोपहरमे
मेरी साँसों में भर जाती,
कितना याद दिला जाती ...

नन्ही लडकी सामने आती
जिसे आरज़ू थी बडे होनेके
जब दिन छोटे लगते थे,
जब परछाई लम्बी होती थी...

यें यादे कैसी होती?
कडी धूपमे ताजी रहती है !
ये कैसे नही सूखती?
ये कैसे नही मुरझाती ?

ये क्या चमत्कार है?
पर ठीक ही है जोभी है,
चाहे वो रुला जाती है,
दिलको सुकूँ भी पहुँचाती....

बातेँ पुरानी होकेभी,
लगती हैं कलहीकी
जब पीली तसवीरें,
मेरे सीनेसे चिपकती हैं,
जब होठोंपे मुस्कान खिलती है
जब आँखें रिमझिम झरती हैं
जो खो गया ,ढूँढे नही मिलेगा,
बात पतेकी मुझहीसे कहती हैं ....

शमा