रिश्तोंमे पड़ीं, दरारें इतनी,
के, मर्रम्मत के क़ाबिल नही रही,
छूने गयी जहाँ भी, दीवारें गिर गयीं...
क्या खोया, क्या मिट गया,या दब गया,
इस ढेर के नीचे,कोई नामोनिशान नहीं....
कुछ थाभी या नही, येभी पता नही...
मायूस खडी देखती हूँ, मलबा उठाना चाहती हूँ,
पर क्या करुँ? बेहद थक गयी हूँ !
लगता है, मानो मै ख़ुद दब गयी हूँ...
अरे तमाशबीनों ! कोई तो आगे बढो !
कुछ तो मेरी मदद करो, ज़रा हाथ बटाओ,
यहाँ मै, और कुछ नही, सफ़ाई चाहती हूँ...!!
फिर कोई बना ले अपना, महेल या झोंपडा,
उसके आशियाँ की ये हालत ना हो,
जी भर के दुआएँ देना चाहती हूँ...!!
सारी पुकारें मेरी हवामे उड़ गयीं...
कुछेक ने कहा, ये है तेरा किया कराया,
खुद्ही समेट इसे, हमें क्यों बुलाया ?
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5 comments:
रिश्तोंमे पड़ीं, दरारें इतनी,
के, मर्रम्मत के क़ाबिल नही रही,
बहुत खूब लिखा है,
I can only add to say that,
"दिल है के मेरा ,जैसे एक खाली मकान है,
ज़रजर तो हो गया है मगर आलीशान है!"
"हैं हवाएं भी सर्द, और अन्धेरा भी घना,
शम्मा चाहे कि नहीं उसे हर हाल में जलना होगा!"
To read the complete गज़ल do visit www.sachmein.blogspot.com
kaaphi achhi kavita hai... aapaki kavitaaon me kuchh naya dekhane ko milata hai ...jaari rakhe...
रिश्तोंमे पड़ीं, दरारें इतनी,
के, मर्रम्मत के क़ाबिल नही रही,
छूने गयी जहाँ भी, दीवारें गिर गयीं..
behad khhobdurat ji
HAI KAUN SEE DEEWAR VO, JISME NAHEEN DARAR ,
AA JHANK KAR KE DEKHEN TO,RISHTON KE AAR PAAR .
Not said by me and do not know who said it, but a great thought akin to expressed by you"
"waqt-e-piriN dosto ki berukhi ka kya gila,
har koi chalta hai bach ke girti hui deevaron se"
Thanks for your visit on my blog.
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