Tuesday, March 10, 2009

शमा, अपनेही मज़ारकी.....

शमा, अपनेही मज़ारकी.....


रुसवाईयों से कितना डरें, के,
डर के सायेमे जीते हैं हम !
या कि रोज़ मरते हैं हम ?
लिख डाला आपने दीवारों तकपे,
उसे तो मिटाभी सकते हैं हम...
आख़िर कबतक यही करेंगे हम?
डरके ही सायेमे दम तोडेंगे हम?
ये रौशनी नही उधारकी,
सदियोंसे अपनेही मज़ारपे,
जलते हुए चराग हैं हम....

जो दाग ,दामने दिलपे मिले,
वो मरकेभी न मिटा पाएँगे,
सोचते हैं, मूँदके अपनी आँखे,
काश! ये होता,वो ना होता,
गर ऐसा होता तो कैसा रहता....
जब कुछ नही बदल सकते हैं हम,
हरपल डरके सायेमे रहते हैं हम.....

बचीं हैं चंद आखरी साँसे,
अब तो हटा लो अपने साए ,
के कबसे तबाह हो चुके हैं हम....
याद रखना, गर निकलेगी हाय,
खुदही मिट जायेंगे आप,
बून्दभी पानीकी न होगी नसीब,
इसतरह तड़प जायेंगे आप,
डरके साए बन जायेंगे हम...

वैसे तो मिट ही चुके हैं,
हमें मिटानेकी तरकीबें करते,
क्या करें, कि, अपने गिरेबाँ मे
झाँक नही सकते हो तुम?
सब्रकी इन्तेहा हो गयी है,
अब खबरदार हो जाओ तुम,
पीठ मे नही, ख़ंजर,अब,
सीनेमे पार कर सकते हैं हम,
कबतक डरके रह सकते हैं हम?
अपनेही मज़ारका दिया हैं हम...

शमा

4 comments:

Anonymous said...

खत्म कर दीजिये इस अदावत को
दिल में रखिये बसा के चाहत को

जिंदगी खामोश न होने देना
गुनाह ले चलो अदालत को

हवा देती है जब पाजेब को खम
चोट लगती है तब क़यामत को

Anonymous said...

बचीं हैं चंद आखरी साँसे,
अब तो हटा लो अपने साए....

beautiful lines...

Anonymous said...

शमा जी बहुत ही सुन्दर लिखा है।

'sammu' said...

utar do seene me vo khanjar
gar tumhen kuch sukoon mile to.

nisar tumpe sau zindaganee ,
agar 'shama' mere mazar kee tum !