हम कभी रूठते न थे,
मनाना आता नही उन्हें,
बखूबी जानते थे !
ताउम्र वो रूठे रहे,
हमारी हर अदासे
हम उन्हें मनाते रहे !
हम फिरभी नही रूठे.....
वो हमसफ़र मेरे, सफ़र के
हर मोड़पे मुँह मोडके,
चलतेही गए, निकलके आगे,
हम दामन पसारते रहे,
चश्म बेसब्र रोते रहे,
मुरझाये लब मुस्कुराते रहे,
हम कभी ना रूठे.....
अपनीही बाहोंमे सिमटे रहे,
कभी एक क़दम भी साथ चले?
पूछती रहीं हरवक्त हमसे,
सिसकती सुनसान राहे,
ना, ना, ना कहो ऐसे,
हम जवाबमे नकारते रहे,
हम रूठे, पर खुदसे...
की ना की हर ख़ता के,
इल्ज़ाम उम्रभर, सहते रहे,
चाहते तो रूठते उनपे,
पर हम तो निसार थे,
उन्हीपे ,जो हमें हमारे,
सबकुछ लगे थे,
कैसे नही समझे,
के, हम उनके क्या थे?
रूठते तोभी क्या पाते...?
कठपुतली बँधी खूँटी से,
जिसे वो नचाते रहे?
सिर्फ़ यही थे उनके लिए?
बेखब्र ख़याल आते रहे,
बेसाख्ता सवाल उठते गए,
बेदर्द मौसम बदलते गए,
हम उन्हें बुलातेही गए,
ख़ुद को ख़ुद ही मनाते रहे....
अब छाई हैं खिजाएँ, ,
मीलों रूखे बियाबाँमे ,
कभी आयीं थी बहारें?
जो देती हो सदायें?
उजडे बूटे, सूखे पत्ते,
बेज़ुबाँ, सब बेचारे,
करते रहे इशारे,
अब क्या तो रूठें,
क्या तो मनाएँ उन्हें??
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10 comments:
बहुत ही सुन्दर रचना
पहली बार आया आपके ब्लॉग पर अच्छा लगा..
शुभकामनायें..
बहुत ही सुन्दर रचना .....
जिंदगी एक दौड़ है । दौड़ना है । अपने से ही जीतना है । अपने से ही हारना भी है । जिंदगी का सबसे बड़ा रहस्य तो यही है ,जिसे हम जान नही पाते ....
बेदर्द मौसम बदलते गए,
हम उन्हें बुलातेही गए,
ख़ुद को ख़ुद ही मनाते रहे....
अपने मनोभावों को सुन्दर शब्द दिए हैं।अच्छी रचना है।
seems your older kavita part of duvidha ?
Man ke udgaar itne sunder shabdon mein pirone ke liye badhai....
Regards....
अब छाई हैं खिजाएँ, ,
मीलों रूखे बियाबाँमे ,
कभी आयीं थी बहारें?
जो देती हो सदायें?
उजडे बूटे, सूखे पत्ते,
बेज़ुबाँ, सब बेचारे,
करते रहे इशारे,
अब क्या तो रूठें,
क्या तो मनाएँ उन्हें??
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण कविता लिखी है आपने शमा जी ..दिल को छूने वाली .
और आपने तो ऐसा कुछ कहा भी नहीं जिसके लिए आप मुझसे क्षमा मांगें ...हां आप अपने ब्लॉग पर हिंदी में लिखने वाला बाक्स लगा लें तो हिंदी में कमेन्ट लिखना असं रहेगा.
शुभकामनाओं के साथ.
हेमंत कुमार
अब छाई हैं खिजाएँ, ,
मीलों रूखे बियाबाँमे ,
कभी आयीं थी बहारें?
जो देती हो सदायें?
उजडे बूटे, सूखे पत्ते,
बेज़ुबाँ, सब बेचारे,
करते रहे इशारे,
अब क्या तो रूठें,
क्या तो मनाएँ उन्हें??
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण कविता लिखी है आपने शमा जी ..दिल को छूने वाली .
और आपने तो ऐसा कुछ कहा भी नहीं जिसके लिए आप मुझसे क्षमा मांगें ...हां आप अपने ब्लॉग पर हिंदी में लिखने वाला बाक्स लगा लें तो हिंदी में कमेन्ट लिखना असं रहेगा.
शुभकामनाओं के साथ.
हेमंत कुमार
Dear Shama Ji,
Aap ka tah-e-dil se shuqriya, mere blog par aane aur apne keemati vicharon se use nawzne ke liye.
Ek gazal ka link nichey copy kar raha hoon,shayaad pasand aaye.Aisi tamam "trash" mere blog par hai thoda samay aur tavazzo dein tau mehaerbaani hogi!
http://sachmein.blogspot.com/2009/02/blog-post_28.html
shama ji muje word verification ke bare me kuch nahi pata. ye kahaan se thik hoga aap muje bata dijeye. muje to kewal or kewal likhne or padhne ka hi kaam aata hai.
aapne meri kavita ko pad kar comment kiya acha laga. waise aap bhi acha likhti hain.
हम कभी रूठते न थे,
मनाना आता नही उन्हें,
बखूबी जानते थे !
ताउम्र वो रूठे रहे,
हमारी हर अदासे
हम उन्हें मनाते रहे !
kya khub likha hai aapne.
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