Friday, February 4, 2011

गुफ़्तगू बे वजह की!कविता पर भी!



ज़रा कम कर लो,
इस लौ को,
उजाले हसीँ हैं,बहुत!
मोहब्बतें,
इम्तिहान लेती हैं
मगर! 

पहाडी दरिया का किनारा,
खूबसूरत है मगर,
फ़िसलने पत्थर पे
जानलेवा 
न हो कहीं!

मैं नही माज़ी,
मुस्तकबिल भी नही,
रास्ते अक्सर
तलाशा करते हैं
गुमशुदा को!मगर!

किस्मतें जब हार कर,
घुटने टिका दे,
दर्द साया बन के,
आता है तभी!


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6 comments:

shama said...

मैं नही माज़ी,
मुस्तकबिल भी नही,
रास्ते अक्सर
तलाशा करते हैं
गुमशुदा को!मगर!
Wah! Kya gazab ka likha hai!

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

किस्मतें जब हार कर,
घुटने टिका दे,
दर्द साया बन के,
आता है तभी!

बहुत सही !

mark rai said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति...

VIVEK VK JAIN said...

मैं नही माज़ी,
मुस्तकबिल भी नही,
रास्ते अक्सर
तलाशा करते हैं
गुमशुदा को....... thoughtful!!!

VIVEK VK JAIN said...

मैं नही माज़ी,
मुस्तकबिल भी नही,
रास्ते अक्सर
तलाशा करते हैं
गुमशुदा को....... thoughtful!!!

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

'किस्मतें जब हारकर
घुटने टिका दें
दर्द साया बनके
आता है तभी '
सुन्दर भावों से पूर्ण रचना