ज़रा कम कर लो,
इस लौ को,
उजाले हसीँ हैं,बहुत!
मोहब्बतें,
इम्तिहान लेती हैं
मगर!
पहाडी दरिया का किनारा,
खूबसूरत है मगर,
फ़िसलने पत्थर पे
जानलेवा
न हो कहीं!
मैं नही माज़ी,
मुस्तकबिल भी नही,
रास्ते अक्सर
तलाशा करते हैं
गुमशुदा को!मगर!
किस्मतें जब हार कर,
घुटने टिका दे,
दर्द साया बन के,
आता है तभी!
6 comments:
मैं नही माज़ी,
मुस्तकबिल भी नही,
रास्ते अक्सर
तलाशा करते हैं
गुमशुदा को!मगर!
Wah! Kya gazab ka likha hai!
किस्मतें जब हार कर,
घुटने टिका दे,
दर्द साया बन के,
आता है तभी!
बहुत सही !
बहुत अच्छी प्रस्तुति...
मैं नही माज़ी,
मुस्तकबिल भी नही,
रास्ते अक्सर
तलाशा करते हैं
गुमशुदा को....... thoughtful!!!
मैं नही माज़ी,
मुस्तकबिल भी नही,
रास्ते अक्सर
तलाशा करते हैं
गुमशुदा को....... thoughtful!!!
'किस्मतें जब हारकर
घुटने टिका दें
दर्द साया बनके
आता है तभी '
सुन्दर भावों से पूर्ण रचना
Post a Comment