Tuesday, March 16, 2010

वो घर बुलाता है...

वो घर बुलाता है...
जब,जब पुरानी तस्वीरे
कुछ याँदें ताज़ा करती हैं ,
हँसते ,हँसते भी मेरी
आँखें भर आती हैं!

वो गाँव निगाहोंमे बसता है
फिर सबकुछ ओझल होता है,
घर बचपन का मुझे बुलाता है,
जिसका पिछला दरवाज़ा
खालिहानोमें खुलता था ,
हमेशा खुलाही रहता था!

वो पेड़ नीमका आँगन मे,
जिसपे झूला पड़ता था!
सपनोंमे शहज़ादी आती थी ,
माँ जो कहानी सुनाती थी!

वो घर जो अब "वो घर"नही,
अब भी ख्वाबोमे आता है
बिलकुल वैसाही दिखता है,
जैसा कि, वो अब नही!

लकड़ी का चूल्हाभी दिखता है,
दिलसे धुआँसा उठता है,
चूल्हा तो ठंडा पड़ गया
सीना धीरे धीरे सुलगता है!

बरसती बदरीको मै
बंद खिड्कीसे देखती हूँ
भीगनेसे बचती हूँ
"भिगो मत"कहेनेवाले
कोयीभी मेरे पास नही
तो भीगनेभी मज़ाभी नही...

जब दिन अँधेरे होते हैं
मै रौशन दान जलाती हूँ
अँधेरेसे कतराती हूँ
पास मेरे वो गोदी नही
जहाँ मै सिर छुपा लूँ
वो हाथभी पास नही
जो बालोंपे फिरता था
डरको दूर भगाता था...

खुशबू आती है अब भी,
जब पुराने कपड़ों मे पडी
सूखी मोलश्री मिल जाती
हर सूनीसी दोपहरमे
मेरी साँसों में भर जाती,
कितना याद दिला जाती ...

नन्ही लडकी सामने आती
जिसे आरज़ू थी बडे होनेके
जब दिन छोटे लगते थे,
जब परछाई लम्बी होती थी...


बातेँ पुरानी होकेभी,
लगती हैं कलहीकी
जब होठोंपे मुस्कान खिलती है
जब आँखें रिमझिम झरती हैं
जो खो गया ,ढूँढे नही मिलेगा,
बात पतेकी मुझहीसे कहती हैं ....

10 comments:

lifes' like this.. never fair never right said...

Amazing !!!

Neeraj Kumar said...

लकड़ी का चूल्हाभी दिखता है,
दिलसे धुआँसा उठता है,
चूल्हा तो ठंडा पड़ गया
सीना धीरे धीरे सुलगता है!...

जिसका पिछला दरवाज़ा
खालिहानोमें खुलता था ,
हमेशा खुलाही रहता था!...

ये पंक्तिया सामान्य शब्दावली नहीं बल्कि दर्दों की दरिया है... बहुत ही बढ़िया कविता... मुझे तो लगता है यह पीड़ा उन सभी की है जो उखड गए हैं जड़ों से, आधुनिक जीवन की लड़ाई के कारण...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सी यादें संजोये खूबसूरत रचना...बधाई

सदा said...

यादों को समेटे हुये, बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

वाह, कमाल का बयान!

vandana gupta said...

yaadon ko bahut hi sundar shabdon se sanjoya hai.

Yogesh Verma Swapn said...

behatareen abhivyakti. badhaai.

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

......नन्ही लडकी सामने आती...जिसे आरज़ू थी बडे होने के...
जब दिन छोटे लगते थे....जब परछाई लम्बी होती थी...
अविस्मरणीय रही ये स्मृति......मुबारकबाद

कडुवासच said...

वो पेड़ नीमका आँगन मे,
जिसपे झूला पड़ता था!
सपनोंमे शहज़ादी आती थी ,
माँ जो कहानी सुनाती थी!
....बहुत खूब,प्रभावशाली अभिव्यक्ति!!!

दिगम्बर नासवा said...

वो गाँव निगाहोंमे बसता है
फिर सबकुछ ओझल होता है,
घर बचपन का मुझे बुलाता है,...

बचपन शायद इंसान को वापस खींचता है ...
बहुत ही लाजवाब रचना ... अपने घर की याद दिलाते ....