इन्तेहा-ए-उम्मीदे-वफ़ा क्या खूब!
जागी आंखों ने सपने सजा लिये।
मौत की बेरुखी, सज़र-ए-इन्सानियत में,
अधमरे लोग हैं,गिद्दों ने पर फ़ैला लिये।
चाहा था दुश्मन को दें पैगाम-ए-अमन
दोस्तों ने ही अपने खंजर पैना लिये।
भीड में कैसे मिलूंगा, तुमको मैं?
ढूंडते हो खुद को ही,तुम आईना लिये!
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7 comments:
bahut hi badhiyaa likha hai
भीड में कैसे मिलूंगा, तुमको मैं?
ढूंडते हो खुद को ही,तुम आईना लिये ..
बहुत खूब .. क्माल की बात कह दी इन शेरो में .....
खूबसूरत ख़याल...अच्छी ग़ज़ल
wah. bahut khoob.
चाहा था दुश्मन को दें पैगाम-ए-अमन
दोस्तों ने ही अपने खंजर पैना लिये।
Kya baat hai Leoji! Waise harek sher apneaap me mukammal hai!
चाहा था दुश्मन को दें पैगाम-ए-अमन
दोस्तों ने ही अपने खंजर पैना लिये।
वाह...शानदार
इसी सिलसिले में मेरा एक शेर देखें-
ख़जर था किसके हाथ में ये तो ख़बर नहीं,
हां! दोस्त की तरफ़ से मैं गाफ़िल ज़रूर था.
Vaah Sahid Sahib Vaah!
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