तेरे थरथराते कांपते होठों पर,
मैंने कई बार चाहा कि,
अपनी नम आंखे,
रख दूं!
पर,
तभी बेसाख्ता याद आया
भडकती आग पर,
घी नही डाला करते!
मुझे यकीं है के,
तेरे भी ज़ेहन में,
अक्सर आता है,
ये ख्याल के
तू भी,
कभी तो!
मेरे ज़ख्मों पे दो बूंद
अपने आंसुओं की गिरा दे,
पर मैं जानता हूं
के तू भी डरता है,
भडकती आग में
घी डालने से!
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7 comments:
Anoothee,aprateem rachana!
khubsurat sa ahasas....pyar ka...badhiya
शुक्रिया!
बहुत खूब .. काश के ये घी कभी पानी बन सकता और ठंडक पहुंचा पाता ... लाजवाब लिखा है ...
achcha likhe......
bahut khub likha aap ne...
पर मैं जानता हूं
के तू भी डरता है,
भडकती आग में
घी डालने से!good expression.
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