Monday, April 12, 2010

क़हत..

हर क़हत में हम सैलाब ले आये,
आँसूं सूख गए, क़हत बरक़रार रहे..

कहनेको तो धरती निर्जला है,
ज़रा दिलकी सरज़मीं देखो, कैसी है?

दर्द के हजारों बीज बोये हुए हैं,
पौधे पनप रहे हैं,फसल माशाल्लाह है!

9 comments:

संजय भास्‍कर said...

हर क़हत में हम सैलाब ले आये,
आँसूं सूख गए, क़हत बरक़रार रहे..

एहसास की यह अभिव्यक्ति ...बहुत खूब

दिगम्बर नासवा said...

कहनेको तो धरती निर्जला है,
ज़रा दिलकी सरज़मीं देखो, कैसी है?

दर्द के हजारों बीज बोये हुए हैं,
पौधे पनप रहे हैं,फसल माशाल्लाह है ..

दर्द के हज़ारों पेड़ उग आए हैं ... दर्द की नदी बह रही है ... बहुत लाजवाब ...बहुत खूब लिखा है ....

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

जज़्बातो की ज़मीन पे दर्द की बीज, फ़सल गमों की लहलहायेगी!सुन्दर ख्याल बना है!वाह

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

दर्द के हजारों बीज बोये हुए हैं,
पौधे पनप रहे हैं,फसल माशाल्लाह है!


वाह..घज़ब कर दिया इन चंद पंक्तियों में ही.....बहुत खूब

कडुवासच said...

दर्द के हजारों बीज बोये हुए हैं,
पौधे पनप रहे हैं,फसल माशाल्लाह है!
.... bahut sundar, behatreen bhaav, badhaai !!!

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

कहने को तो धरती निर्जला है,
ज़रा दिल की सरज़मीं देखो, कैसी है?
वाह...बिल्कुल अलग ही अंदाज़ से कही गई है बात. मुबारकबाद कबूल फ़रमाएं

Neeraj Kumar said...

शमा जी...

कहनेको तो धरती निर्जला है,
ज़रा दिलकी सरज़मीं देखो, कैसी है?

प्रश्न मार्मिक है और जवाब देने की जुर्रत नहीं...
बहुत ही कम शब्दों में क्या खूब कह दिया...

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

बहुत खूब कहा आपने

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

शमा जी, ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया ...

आपकी यह रचना मुझे अच्छी लगी ... खास कर ये पंक्तियाँ -
हर क़हत में हम सैलाब ले आये,
आँसूं सूख गए, क़हत बरक़रार रहे..