सर आँखों पे चढ़ाया जिन्हें हमने,
वो हमें निगाहों से गिरा गए,
सीता होनेका दावा न किया हमने,
वो ख़ुद को राम कह गए।
हम तो पहुँचे थे आँगन उनके,
प्यारभरी बदरी बनके,
तन मन सींचना चाहते थे,
बरसे तो,वो रेगिस्ताँ बन गए!
मंज़ूर थीं सारी सज़ाएँ ,
ख़ुद शामिले कारवाँ हो गए,
हमें एक उम्र तन्हाँ दे गए...
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11 comments:
सीता होनेका दावा न किया हमने,
वो ख़ुद को राम कह गए ...
खुद ही कत्ल कर के मुनसिफ़ भी बन बैठे .... सीता होना आसान नही है ... पर राम भी तो राम नही हैं जब सीता नही .... बहुत अच्छा लिखा है ....
हम तो पहुँचे थे आँगन उनके,
प्यारभरी बदरी बनके,
तन मन सींचना चाहते थे,
बरसे तो,वो रेगिस्ताँ बन गए!
gazab ke bhav bhar diye hain.......yun to poori kavita hi lajawaab hai.
शमा साहिबा, आदाब
बहुत अच्छी रचना है.....
ये पंक्ति खास असर छोड़ती है-
.......सर आँखों पे चढ़ाया जिन्हें हमने...वो हमें निगाहों से गिरा गए,
.....प्यारभरी बदरी बनके......तन मन सींचना चाहते थे,
बरसे तो, वो रेगिस्ताँ बन गए!
...............मंज़ूर थीं सारी सज़ाएँ....ख़ुद शामिले कारवाँ हो गए...हमें एक उम्र तन्हाँ दे गए...
वाह.....बहुत खूब
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
n jaane aisa kyun hota hai?jise hum apna samajhte hain,jinke liye apna sarvaswa aahut karne ko udhat rehte hain,
wahi tokhar laga jata hai...
bahut acchi lagi aapki yeh rachna!
हम तो पहुँचे थे आँगन उनके,
प्यारभरी बदरी बनके,
तन मन सींचना चाहते थे,
बरसे तो,वो रेगिस्ताँ बन गए!
bahut bha gain ye panktian.
बहुत मार्मिक रचना...चंद पंक्तियों में जिंदगी भर की दास्ताँ कह दी..
सुन्दर भाव लिये हुये है आपकी ये रचना!
अति सुन्दर ,आखिर आप ने वो लिख दिया जो मेरे ही नही किसी के वाह वाह करा सकता है
तन मन सींचना चाहते थे,
बरसे तो,वो रेगिस्ताँ बन गए!
gazab ke bhav bhar diye hain.......yun to poori kavita hi lajawaab hai.
तन मन सींचना चाहते थे ...वे बरसे तो रेगिस्तान हो गए ...
बहुत भावपूर्ण ...!!
सीता होनेका दावा न किया हमने,
वो ख़ुद को राम कह गए ...zabardast bhav hai man ke ,umda
kuchh shabd is rachna par apni taraf se kahoongi ----
अंधे आदर्शो को कंधो पर बिठलाकर
मैं उनका बोझ और नही ढो सकता हूँ .
तुम इस युग की 'सीता' बनने की जिद्द न करो
मैं रामायण का 'राम' नही हो सकता हूँ
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