इक बोझ-सा है मनमे,
उतारूँ कैसे?
कहने को बहुत कुछ है,
कहूँ कैसे?
वो अल्फाज़ कहाँसे लाऊं,
जिन्हें तू सुने?
वो गीत सुनाऊं कैसे,
जो तूभी गाए?
लिखा था कभी रेत पे,
हवा ले गयी उसे...
गीत लिखे थे पानी पे,
बहा गयी लहरें उन्हें!
ना कागज़ है, ना क़लम है,
दास्ताँ सुनाऊँ कैसे?
ख़त्म नही होती राहें,
मै संभालूँ कैसे?
इक बोझ-सा है मनमे,
उतारूँ कैसे?
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7 comments:
बेहद ही संजीदा से कशमकश/प्यार जालिम चीज ही ऐसी होती है!
wow very very nice poem
आपने सब चीजों को अछे से बैलेंस किया है...
wah , achchi bhavabhivyakti.
Gazab!
ना कागज़ है, ना क़लम है,
दास्ताँ सुनाऊँ कैसे?
उहापोह की इस अभिव्यक्ति को सशक्त पांव प्रदान किया है आपने
बोझ उतारे नहीं जाते
चाहकर भी
उतर जाते हैं स्वयं ही
बिन बताये
जतलाये।
what a way to show the confusions in heart and mind.. Bravo!!
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