Tuesday, February 22, 2011

था आफताब भी....

था आफताब भी ,था माहताब भी!
तब अँधेरे घनेरे थे,ऐसा नही,
थे रौशनी के हज़ार क़ाफ़िले भी!
सर पर के बोझ का दोष नही,
पगतले तिमिर का आक्रोश नही,
खुली सराय बुला रही थी!
चमन में हलचली थी मची,
संभलो लुटेरा है,यहीँ कहीँ!
न सुननेकी मैंने जो ठानी थी!
मै तो उजालों में ठगी जानी थी!

8 comments:

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

अहसास और तकलीफ़ का अच्छा चित्रण है!

OM KASHYAP said...

बहुत सुंदर जज़्बात. सुंदर सन्देश देती बढ़िया प्रस्तुती.

Neeraj Kumar said...

मै तो उजालों में ठगी जानी थी...

ऐसे भाव पर हम मर-मिटें... क्या खूब लिखा है...

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

तब अँधेरे घनेरे थे,ऐसा नही,
थे रौशनी के हज़ार क़ाफ़िले भी!
क्या बात है, वाह इन दो पंक्तियों में ही जैसे सब कुछ कह दिया गया...बधाई.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

गहन भावों का सूक्ष्म चित्रण

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ...

Anamikaghatak said...

bhavpoorna aut satik chitran

वाणी गीत said...

ना सुनने की मैंने ठानी थी , मैं तो उजालों में ठगी जानी थी !
सुन्दर !