पता नहीं क्यों,
जब भी मैं किसी से मिलता हूं,
अपना या बेगाना,
मुझे अपना सा लगता है!
और अपने अंदाज़ में
मैं खिल जाता हूं,
जैसे सर्दी की धूप,
मैं लिपट जाता हूं,
जैसे जाडे में लिहाफ़,
मै चिपक जाता हूं,
जैसे मज़ेदार किताब,
मैं याद आता हूं
जैसे भूला हिसाब,
(पांच रुप्पईया, बारह आना)
मुझे कोई दिक्कत नहीं,
अपने इस तरीके से लेकिन,
पर अब सोचता हूं,
तो लगता है,
लोग हैरान ओ परेशान हो जाते हैं,
इतनी बेतकक्लुफ़ी देखकर,
फ़िर मुझे लगता है,
शायद गलती मेरी ही है,
अब लोगों को आदत नहीं रही,
इतने ख़ुलूस और बेतकल्लुफ़ी से मिलने की,
लोग ताल्लुकातों की धुंध में
रहना पसंद करते है,
शायद किसी
’थ्रिल’ की तलाश में
जब भी मिलो किसी से,
एक नकाब ज़रूरी है,
जिससे सामने वाला
जान न पाये कि असली आप,
दरअसल,
है कौन?
Also available at "सच में" www.sachmein.blogspot.com
7 comments:
सच है आज मन में कुछ होता है और चेहरे पर कुछ और ....अच्छी अभिव्यक्ति
जब भी मिलो किसी से,
एक नकाब ज़रूरी है,
जिससे सामने वाला
जान न पाये कि असली आप,
दरअसल,
है कौन?
सच मे सच कह दिया……………आज का तो यही दौर है लोग नकाब पर भी नकाब डाले मिलते हैं……………दिल मे बहुत गहरे उतर गयी ये रचना……………एक बेजोड प्रस्तुति।
लोग ताल्लुकातों की धुंध में
रहना पसंद करते है,
शायद किसी
’थ्रिल’ की तलाश में
Sach hai! Bahut dinon baad aap aye is blog pe,lekin ek behtareen rachanake saath!
अब लोगों को आदत नहीं रही,
इतने ख़ुलूस और बेतकल्लुफ़ी से मिलने की...
समाज में आ रहीं तब्दीलियों को बयान करती बेहतरीन नज़्म.
मै चिपक जाता हूं,
जैसे मज़ेदार किताब,
वाह!!! क्या बात है!
bahut khub.
लोग ताल्लुकातों की धुंध में
रहना पसंद करते है,
शायद किसी
’थ्रिल’ की तलाश में
और फिर धुन्ध है कि छँटती ही नहीं है
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