ज़िन्दगी अच्छी है,
पर अज़ीब है न?
जो बुरा है,
कितना लज़ीज़ है न?
गुनाह कर के भी वो सुकून से है,
अपना अपना ज़मीर, है न?
मैं तुझीसे मोहब्बत करता हूं
आखिर मेरा भी रकीब है न?
कैसे उठाऊं मै नाज़ तेरा,
कांधे पर सलीब है न?
उसका दुश्मन कोई नहीं है यहां
वो सच मे कितना बदनसीब है न?
सोना चांदी बटोरता रहता है,
बेचारा कितना गरीब है न?
दर्द पास आयेगा कैसे,
तू तो मेरे करीब है न?
9 comments:
अच्छी गजल ,पसंद आई ।
"बेहतरीन...अंत तो कमाल का था..."
Wah! Harek sher gazab hai...harek lafz apni jagah gadha hua hai!
amazing ............
खूबसूरत रचना
पढ़कर अच्छा लगा। शुभकामनाएं।
Mast ..Rachna. I like it very Much.
Thanks.
sundar rachana.............badhai
गुनाह करके भी सुकून से कैसे है ...
यही हैरानी तो बार बार होती है !
sundar rachna!
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