Wednesday, June 23, 2010

मुझ संग खेलो होली...


कहाँ हो?खो गए हो?
अपने आसमाँ के लिए,
पश्चिमा रंग बिखेरती देखो,
देखो, नदियामे भरे
सारे रंग आसमाँ के,
किनारेपे रुकी हूँ कबसे,
चुनर बेरंग है कबसे,
उन्डेलो भरके गागर मुझपे!
भीगने दो तन भी मन भी
भाग लू आँचल छुडाके,
तो खींचो पीछेसे आके!
होती है रात, होने दो,
आँखें मूँदके मेरी, पूछो,
कौन हूँ ?पहचानो तो !
जानती हूँ , ख़ुद से बातें
कर रही हूँ , इंतज़ार मे,
खेल खेलती हूँ ख़ुद से,
हर परछायी लगे है,
इस तरफ आ रही हो जैसे,
घूमेगी नही राह इस ओरसे,
अब कभी भी तुम्हारी
मानती नही हूँ,जान के भी..
हो गयी हूँ पागल-सी,
कहते सब पडोसी...
चुपके से आओ ना,
मुझ संग खेलो होली ...

8 comments:

adwet said...

bahut achhi kavita

शारदा अरोरा said...

हाय ये कैसी होली है
बिरहन को रँग सब दिखते हैं
पर झोली खाली खाली है
साये ही बने हमजोली हैं ...

sanu shukla said...

sundar rachna...

वाणी गीत said...

भरी गर्मी में होली की गुजारिश ....
अच्छा है ...:):)

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अभी तो फाल्गुन बहुत दूर है.....पर जब मन चाहे तब होली है.....अच्छी रचना..एक तड़प को बताती हुई

V Vivek said...

bahut achchi lagi aapki rachna!

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

जानती हूं........
ख़ुद से बातें........
कर रही हूं........
इन्तज़ार में.........
क्या खूब पंक्तियां हैं....वाह

वीरेंद्र सिंह said...

Kyaa baat hai....?