अपने आसमाँ के लिए,
पश्चिमा रंग बिखेरती देखो,
देखो, नदियामे भरे
सारे रंग आसमाँ के,
किनारेपे रुकी हूँ कबसे,
चुनर बेरंग है कबसे,
उन्डेलो भरके गागर मुझपे!
भीगने दो तन भी मन भी
भाग लू आँचल छुडाके,
तो खींचो पीछेसे आके!
होती है रात, होने दो,
आँखें मूँदके मेरी, पूछो,
कौन हूँ ?पहचानो तो !
जानती हूँ , ख़ुद से बातें
कर रही हूँ , इंतज़ार मे,
खेल खेलती हूँ ख़ुद से,
हर परछायी लगे है,
इस तरफ आ रही हो जैसे,
घूमेगी नही राह इस ओरसे,
अब कभी भी तुम्हारी
मानती नही हूँ,जान के भी..
हो गयी हूँ पागल-सी,
कहते सब पडोसी...
चुपके से आओ ना,
मुझ संग खेलो होली ...
8 comments:
bahut achhi kavita
हाय ये कैसी होली है
बिरहन को रँग सब दिखते हैं
पर झोली खाली खाली है
साये ही बने हमजोली हैं ...
sundar rachna...
भरी गर्मी में होली की गुजारिश ....
अच्छा है ...:):)
अभी तो फाल्गुन बहुत दूर है.....पर जब मन चाहे तब होली है.....अच्छी रचना..एक तड़प को बताती हुई
bahut achchi lagi aapki rachna!
जानती हूं........
ख़ुद से बातें........
कर रही हूं........
इन्तज़ार में.........
क्या खूब पंक्तियां हैं....वाह
Kyaa baat hai....?
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